Tuesday, August 30, 2011


रेलवे को भी है एक 'अन्ना' की जरूरत..

भारतीय रेल का कामकाज पिछले करीब तीन वर्षों से जिस तरह चल रहा है, उससे भा. रे. गर्त में जा रही है. पूर्व रेलमंत्री ममता बनर्जी ने कोलकाता में बैठकर पूरे दो साल तक जिस तरह भा. रे. को हांका, उनके ही सिपहसालार वर्तमान रेलमंत्री उससे भी ज्यादा ख़राब स्थिति में इसे हांकते नजर आ रहे हैं. लगभग दो महीने के कार्यकाल में वह इसका एक चौथाई समय भी अबतक रेल भवन में नहीं बैठे हैं. उनका भी ज्यादातर समय उनकी पार्टी सुप्रीमो की ही तरह कोलकाता में बीत रहा है. ऐसा लगता है कि आज भी ममता बनर्जी ही रेलवे को हांक रही हैं, क्योंकि जिस तरह वर्तमान रेलमंत्री शाम को कोलकाता जाकर सुबह दिल्ली लौटते हैं, उससे तो यही लगता है कि वह उनसे पूछ-पूछकर अपना काम कर रहे हैं. सीआरबी की नियुक्ति में बुरी तरह मात खा गईं ममता बनर्जी ने जिस तरह एमएस और एमएल की नियुक्ति में पीएमओ के साथ अड़ीबाजी की और जिस तरह एक महीने से भी ज्यादा समय तक इनकी नियुक्ति को लंबित करवाया, जिस तरह एमटी की पोस्टिंग को लटकाया हुआ है तथा 11 जोनल महाप्रबंधकों की पोस्टिंग को लेकर जिस तरह सौदेबाजी की जा रही है, उससे भी यही संकेत मिलता है कि आज भी रेल मंत्रालय को ममता बनर्जी ही चला रही हैं. वर्तमान रेलमंत्री को बहुत काबिल और उच्च शिक्षित बताया जाता है, परन्तु उनको अबतक यही पता नहीं है कि रेलवे में उन्हें करना क्या है? पदभार सँभालते ही उन्होंने अपनी पार्टी लाइन को दोहरा दिया कि रेल किराया नहीं बढाया जाएगा, भले इस 'दुर्नीति' से रेलवे का पूरा भट्ठा बैठ जाए, उनकी बाला से..?

पदभार सँभालते ही रेलमंत्री ने यह भी कहा था कि रेलवे के विकास और चालू रेल परियोजनाओं के वित्त-पोषण की व्यवस्था आतंरिक स्रोतों से की जाएगी. यही रट लगाते-लगाते तो करीब तीन साल बीत गए हैं, मगर 'विजन 2020' के लिए जरूरी लगभग डेढ़ लाख करोड़ रु. में से अबतक डेढ़ लाख रु. की भी व्यवस्था नहीं हो पाई है. इसी तरह बाकी समय भी बीत जाएगा और मंत्री एवं सरकार से हटकर सब कुछ भुला दिया जाएगा. जिस तरह ममता बनर्जी का सारा ध्यान कोलकाता और पश्चिम बंगाल की तरफ था, ठीक उसी तरह उनके सिपहसालार रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी का भी है. जहाँ ममता बनर्जी को ज्यादा से ज्यादा रेल परियोजनाएं घोषित करके और रेलवे के असीमित संसाधनों का अधिक से अधिक दोहन करके पश्चिम बंगाल की सत्ता हथियानी थी, वहीँ अब दिनेश त्रिवेदी को उन सभी का ध्यान रखने के लिए रेल मंत्रालय सौंपा गया है. यही वजह है कि पू. रे., द. पू. रे., एन. एफ. रे. और मेट्रो रेलवे, कोलकाता को छोड़कर बाकी अन्य रेलों के पास अपनी छोटी-छोटी परियोजनाएं पूरी करने और काम करवा लेने के बाद भी लम्बे समय से ठेकेदारों को भुगतान करने के लिए फंड नहीं है, जिससे न सिर्फ तमाम परिसंपत्तियों को बदलने का, बल्कि रोजमर्रा का मरम्मत का भी काम बुरी तरह प्रभावित हुआ है. इसी के परिणामस्वरूप आए दिन कहीं न कहीं गाड़ियाँ लुढ़क रही हैं. 

वर्तमान में भा. रे. में भ्रष्टाचार का चौतरफा बोलबाला है, क्योंकि जब कोई 'मुखिया' अथवा देखने वाला ही न हो, तो कौन किसको लुटने और लूटने से रोके? ऐसे में स्थिति यह दिखाई दे रही कि जितना मंत्री लूट रहा है, उससे कहीं ज्यादा भा. रे. को संत्री लूट रहे हैं. चूँकि इस लूट में मंत्री और संत्री दोनों बराबर के भागीदार हैं, इसलिए आयरन ओर लूट की जांच कोई नहीं कर रहा है. इसीलिए किसी और के उंगली उठाने पर एक कंपनी पर 660 करोड़ रु. से ज्यादा का जुर्माना लगाकर मामले को पुनः सौदेबाजी के लिए खुला छोड़ा गया है. इसीलिए किसी संत्री को इसके लिए अबतक जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है. रेलवे बोर्ड में नौकरशाहों की आपसी टांग खिंचाई चरम पर है. इस मामले में स्थिति यह हो गई है कि रेलवे का प्रत्येक नौकरशाह राजनीतिक संरक्षण और शरण खोजता फिर रहा है. 

भा. रे. भी अब इंडियन एयर लाइंस और एयर इंडिया की राह पर चल पड़ी है. जिसे पिछले वित्त वर्ष 2010-11 में यात्री आय में करीब 20 हज़ार करोड़ रु. का नुकसान हुआ हुआ है. यदि स्थिति यही रही तो चालू वित्त वर्ष 2011-12 में यह घाटा बढ़कर 25 से 30 हज़ार करोड़ रु. तक पहुँच जाने का अनुमान लगाया जा रहा है. कहीं इसके पीछे भा. रे. को जानबूझकर बीमार बनाने कि राजनीतिक और नौकरशाही साजिश या रणनीति तो नहीं है? यदि ऐसा नहीं है, तो करीब डेढ़ साल से खाली पड़ी मेम्बर ट्रैफिक की पोस्ट को समाप्त क्यों नहीं कर दिया जाता, जो कि संपूर्ण रेल परिचालन और अर्निंग से जुड़ी एक अत्यंत महत्वपूर्ण पोस्ट है? क्यों इसका दोहरा चार्ज पूर्व और वर्तमान सीआरबी को सौंपकर एक तरफ मितव्ययिता का नाटक खेला जा रहा है, तो दूसरी तरफ रेलवे को जमकर चूना लगाया जा रहा है? 

एक तरफ सीनियर एडमिनिस्ट्रेटिव ग्रेड (एसएजी) स्तर पर रेलवे की आठों संगठित सेवाओं में 140 से ज्यादा सरप्लस अधिकारियों को फर्जी ट्रेनिंग के बहाने घर बैठाकर प्रतिमाह करोड़ों रु. के वेतन-भत्ते मुफ्त में बांटे जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ सितम्बर के बाद सैकड़ों वर्कचार्ज पोस्टों का एक्सटेंशन न मिलने और एडहाक प्रमोशन रुक जाने की खतरनाक स्थिति पैदा होने जा रही है. जबकि कई हाई पावर कमेटियों और सैकड़ों राजनीतिक नियुक्तियों को बिना किसी फलदाई निष्कर्ष के करोड़ों रु. का भुगतान प्रतिमाह किया जा रहा है. यह शायद पहली बार है, जब ऐसी सैकड़ों राजनीतिक नियुक्तियों में उन्हें पचासों हज़ार रु. प्रतिमाह प्रति व्यक्ति मानधन दिए जाने कि व्यवस्था करके सरकारी राजस्व की लूट व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के जरिए की जा रही है? 

इस सबके बावजूद 10 जोनल रेलों और उत्पादन इकाइयों के महाप्रबंधकों की पोस्टें महीनों से खाली पड़ी हुई हैं, और इस स्तर के कई अधिकारियों का कैरियर तबाह कर दिया गया है. बोर्ड में करीब डेढ़ साल से एमटी कि पोस्ट नहीं भरी गई है, जिसका खामियाजा हजारों करोड़ रु. के रेल राजस्व के नुकसान के रूप में आज सबके सामने है. इसके अलावा 30 जून से लगभग 20 मंडल रेल प्रबंधकों (डीआरएम) की पोस्टिंग ओवर ड्यू हो चुकी है. इतने ही डीआरएम कार्यकाल ख़त्म होने पर अपनी नई पोस्टिंग को लेकर भारी उहापोह में है. इस स्थिति के चलते सभी जोनल रेलों का प्रशासनिक कामकाज बुरी तरह प्रभावित हो रहा है. परन्तु रेलवे के 'मुखिया' को जब अपने शेयर दलालों से ही बात करने से फुर्सत नहीं मिल रही है, तो वह इन विभागीय महत्वपूर्ण कार्यों की तरफ ध्यान कैसे देगा? परिणामस्वरूप रेलवे में चौतरफा भ्रष्टाचार और लापरवाही का आलम है. ऐसे में रेलवे का सतर्कता संगठन भी दिग्भ्रमित अवस्था में है. वह सिर्फ मंत्री और संत्री की एडवाइस पर ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ रेल अधिकारियों की टांग खींचने और उनका कैरियर बरबाद करने के दिशा-निर्देशों पर ही अमल कर रहा है. 

उपरोक्त तमाम परिस्थितियों के मद्देनजर देश की इस सबसे सस्ती और सर्वसुलभ परिवहन सेवा को यदि बचाना है, तो भा. रे. को एक 'अन्ना हजारे' की अत्यंत आवश्यकता है..!!  

Monday, August 29, 2011


रेलवे का निकाल रहा है दीवाला 

मंत्री फुटबाल खेलने में मतवाला 

नई दिल्ली : पिछले करीब तीन साल से भारतीय रेल का समय बहुत ख़राब चल रहा है, उस पर इसे वर्तमान सहित लगातार तीन मंत्री न सिर्फ अकार्यक्षम और निहित्स्वार्थी मिले हैं, बल्कि उनका रेलवे के कार्य से कोई खास मतलब भी नहीं रहा है. इनमे से पूर्व और वर्तमान मंत्री को तो रेलवे के दिन-प्रतिदिन के कामकाज से कोई लेना-देना ही नहीं जान पड़ रहा है, यह रेलवे से सिर्फ अपने मतलब साधने में लगे रहे हैं. दूसरी तरफ प्रधानमंत्री को अपने रोज-रोज के पचड़ों से ही फुर्सत नहीं है, तो वह रेलवे के उत्थान-पतन के बारे में कैसे कोई समीक्षा कर सकते हैं? 

एक तरफ रेलवे गर्त में जा रही है तो दूसरी तरफ वर्तमान रेलमंत्री कोलकाता के कचरापाड़ा ग्राउंड पर फुटबाल खेलने में मस्त हैं. उन्हें 11 जोनल रेलों के महाप्रबंधकों की खाली पड़ी पोस्टों को भरने की कोई चिंता नहीं दिखाई दे रही है. और न ही रेलवे बोर्ड में मेम्बर टैफिक की करीब डेढ़ साल खाली पड़ी पोस्ट को भरने की कोई जल्दी है, जो कि वास्तव में रेलवे की एक महत्वपूर्ण अर्निंग पोस्ट है. रेल अधिकारियों और कर्मचारियों को इस सबके पीछे कोई बड़ी साजिश अथवा पैसे के लेनदेन का खेल नजर आ रहा है. यदि ऐसा है भी, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए, क्योंकि रेलवे की बदौलत ही तो पूर्व और वर्तमान रेलमंत्री की पार्टी को पश्चिम बंगाल की सत्ता नसीब हुई है..? 

अब यह तो बिलकुल साफ तौर पर तय हो गया है कि श्री कुलदीप चतुर्वेदी को मेम्बर ट्रैफिक नहीं बनाया जा रहा है. इस साजिश के तहत श्री चतुर्वेदी जैसे एक निहायत ईमानदार रेल अधिकारी को रेलवे बोर्ड पर हावी निहितस्वार्थी मंडली ने न सिर्फ पूरी तरह दरकिनार कर दिया है बल्कि उनका स्वच्छ कैरियर भी बाधित कर दिया है. इसी साजिश के तहत श्री दीपक कृष्ण का कैरियर भी बाधित किया गया और इसी के तहत श्री राजीव भार्गव का कैरियर भी लगातार बाधित किया जा रहा है, जो साफ तौर पर चेयरमैन, रेलवे बोर्ड के उम्मीदवार थे, उनका भी कैरियर करीब-करीब ख़त्म कर दिया गया है. उनकी फाइल को कैबिनेट सेक्रेटरी के पास अटके हुए लगभग दो महीने हो रहे हैं, मगर उसे मंगाने कि फिक्र बोर्ड में किसी को नहीं है. 

अब इसी तरह जानबुझकर एक और ईमानदार ट्रैफिक अधिकारी और जीएम पैनलिस्ट श्री एन. सी. सिन्हा का भी कैरियर बाधित करने की साजिश रेलवे बोर्ड के कुछ निहितस्वार्थी तत्वों द्वारा की जा रही है. वर्ष 2010-11 और 2011-12 के कई जीएम पैनलिस्ट अधिकारियों का कैरियर समय से उनकी पोस्टिंग न हो पाने के कारण बर्बाद हो चुका है, क्योंकि पिछले करीब एक साल से जीएम पोस्टिंग की राह देखते-देखते उनका कार्यकाल दो साल से कम  हो गया है. इसके अलावा रेलवे को पिछले साल लगभग 20,000 करोड़ रु. का नुकसान हो चुका है, जो कि चालू वित्त वर्ष में बढ़कर करीब 25,000 करोड़ हो जाने का अनुमान लगाया जा रहा है. खबर तो यह भी है कि रेलवे ने 2,000 करोड़ रु. का लोन लिया है, जिससे कर्मचारियों का वेतन भुगतान किया जा सके? इन सब परिस्थितियों को देखते हुए भी रेलमंत्री को रेलवे की कोई चिंता हो रही है, ऐसा नहीं दिखाई दे रहा है, क्योंकि जो मंत्री फुटबाल खेलने में मस्त हो और रेल भवन में जमकर बैठता ही न हो, उसे अपने विभाग की कोई चिंता है, ऐसा कम से कम उसके व्यव्हार से तो नहीं लग रहा है?

पू.म.रे.: मैनपावर  प्लानिंग 

की और अधिक जरुरत 

सिर्फ डिप्टी सीई/सी की कुछ पोस्टें कम करने से काम नहीं चलेगा 

हाजीपुर : पू. म. रे. ने मैनपावर प्लानिंग के तहत कुछ डिप्टी सीई/सी की पोस्टें कम की हैं जिससे 'रेलवे समाचार' की इस दिशा में चलाई जा रही मुहिम कुछ रंग लाई है. हालाँकि मैनपावर प्लानिंग और मैनेजमेंट में पू. म. रेलवे ने कुछ जरुरी कदम उठाए हैं मगर इससे काम नहीं चलेगा, बल्कि पू. म. रेलवे को इस सन्दर्भ में और ज्यादा कड़े निर्णय लेने होंगे. तथापि पू. म. रे. प्रशासन ने डिप्टी सीई/सी की कुछ संख्या कम करके एक सराहनीय काम किया है और इसका श्रेय सीएओ/सी श्री पी. एस. तिवारी को जाता है. वह इसके लिए प्रशंसा के पात्र हैं. 

प्राप्त जानकारी के अनुसार पू. म. रे. निर्माण संगठन में हाजीपुर, दानापुर, दरभंगा, सहरसा और समस्तीपुर में डिप्टी सीई/सी की पोस्टें कम की गई हैं.बताते हैं कि डिप्टी सीई/सी हाजीपुर-2 को डिप्टी सीई/सी हाजीपुर-4 में और डिप्टी सीई/सी दानापुर -1 को डिप्टी सीई/सी पटना में मर्ज किया गया है. मगर विभागीय सूत्रों का कहना है कि अभी भी डिप्टी सीई/सी की करीब 6 पोस्टें और कम हो सकने की पूरी गुंजाइश है, जिसमे से एक डिप्टी सीई/सी गंगा ब्रिज की भी पोस्ट है. इन्हें मर्ज किए जाने की आवश्यकता है. क्योंकि सूत्रों का कहना है कि जहाँ कोई काम नहीं है और फंड भी नहीं मिल रहा है, वहां इन पोस्टों को बनाए रखकर सिर्फ रेलवे को आर्थिक नुकसान ही हो रहा है. 

हमारे विभागीय कर्मचारी सूत्रों का कहना है कि इसी प्रकार पूर्वोत्तर रेलवे (एनईआर) और पूर्व रेलवे (पू.रे.) के लीनधारी ग्रुप 'बी' एवं ग्रुप 'सी' अधिकारियों और कर्मचारियों को भी उनकी पैरेंट रेलवे में अविलम्ब वापस भेजा जाना चाहिए, क्योंकि यह लोग यहाँ बिना काम के बैठकर तदर्थ आधार पर अपनी योग्यता से तीन गुना ज्यादा वेतन और पदोन्नतियां ले रहे हैं जिससे रेल राजस्व को भारी नुकसान हो रहा है, जो किसी भी दृष्टि से उचित या तर्कसंगत प्रतीत नहीं हो रहा है. पता चला है कि ग्रुप 'सी' एवं ग्रुप 'डी' के कुछ कर्मचारियों को सरप्लस किए जाने की बात की जा रही है. 

यदि ये बात सही है तो कर्मचारियों का मानना है कि 'इस सन्दर्भ में यही उचित होगा कि यहाँ पूर्वोत्तर रेलवे एवं पूर्व रेलवे के जो लीनधारी कर्मचारी हैं, उन्हें ही वापस भेज दिया जाए, क्योंकि ये लोग पिछले 10-15 सालों से पू.म.रे. को दीमक की तरह चाट रहे हैं. ये लोग न सिर्फ परंपरागत भ्रष्टाचार में लिप्त हैं बल्कि उसे और ज्यादा बढ़ा रहे हैं.' उनका कहना है कि 'ये लोग यहाँ गलत तरीके से 3-3, 4-4 तदर्थ पदोन्नतियां और गलत टीए/डीए लेकर तथा डेड स्टोर में नियुक्त होकर पिछले 10-15 सालों में इस रेलवे को करोड़ों का चूना लगा चुके हैं.' 

कर्मचारियों का कहना है कि 'डेड स्टोर', जहाँ रेलवे का अनुपयोगी सामान रखा जाता है और जहाँ से पिछले 10-12 सालों से कोई ट्रांजेक्शन नहीं हुआ है, और जिसे नियमानुसार समस्तीपुर मेन स्टोर डिपो में भेजा जाना चाहिए, जिसके लिए डीएस-8 ने एक पत्र भी लिखा था. उनका कहना है कि इस तरह से प्रत्येक स्टोर डिपो के नाम पर नियुक्त तमाम चौकीदारों का उपयोग अन्य उपयोगी स्थानों पर किया जा सकता है. यदि सही गाड़ना की जाए तो जिस मटीरियल की सुरक्षा इन चौकीदारों द्वारा की जा रही है उसकी कीमत से भी 10 गुना ज्यादा कीमत वेतन भुगतान के रूप में अब तक इस रेलवे द्वारा इन चौकीदारों को की जा चुकी है. यह रेलवे के हित में कतई नहीं है. 

कर्मचारियों का कहना है कि चूँकि सभी कार्य अब ओपन टेंडर के माध्यम से किए जा रहे हैं और सप्लायरों द्वारा सम्बंधित कार्य क्षेत्र में स्थित स्टोर डिपो को टेंडर के अनुसार सीधे मटीरियल सप्लाई दिए जाने से अब काफी बचत हो जाएगी, इसलिए सेंट्रल सप्लाई स्टोर डिपो हाजीपुर और देहरी ऑन सोन को भी अब बनाए रखने की जरुरत नहीं रह गई है. इन्हें बनाए रखना इस रेलवे के हित में नहीं है, क्योंकि अब सभी मटीरियल का कम्बाइन टेंडर डिप्टी सीई/ट्रेक सेल, महेन्द्रू घाट, पटना के माध्यम से किया जा रहा है. इसके साथ ही यह भी नियम बनाया जाए कि आवश्यकता से ज्यादा सामान किसी को भी जारी नहीं किया जाएगा. 

ज्ञातव्य है कि डिप्टी सीई/ट्रेक कार्यालय द्वारा सभी फ़ील्ड यूनिट्स के डिप्टी सीई/सी कार्यालयों की प्रोजेक्ट जरूरतों के आधार पर मटीरियल परचेज का टेंडर जारी किया जाता है. उसी टेंडर में यह भी प्रावधान किया जाना चाहिए कि सप्लायर एजेंसी द्वारा फ़ील्ड यूनिट्स की आवश्यकतानुसार प्रोजेक्ट के कार्यक्षेत्र में बने स्टोर डिपो अथवा यार्ड/स्टेशन पर लांगर पी-वे मटीरियल को अनलोड किया जाए और स्माल पी-वे मटीरियल को अस्थाई रूप से बने स्टोर्स में अनलोड किया जाना चाहिए, जहाँ हाजीपुर या देहरी ऑन सोन सेंट्रल स्टोर्स से मटीरियल ले जाकर रखा जाता है जो कि रेलवे के हित में कतई नहीं है. क्योंकि इससे खर्च बढ़ता है और सेंट्रल स्टोर से बार-बार प्रत्येक फ़ील्ड यूनिट में मटीरियल ले जाने के चलते रेलवे को प्रति प्रोजेक्ट करीब 3 से 4 करोड़ रूपये का नुकसान हो रहा है. 

कुछ कर्मचारियों का कहना था कि यह भी व्यवस्था की जानी चाहिए कि आवश्यकतानुसार ही मटीरियल का परचेज टेंडर किया जाए और यह टेंडर भी इस तरह किया जाए कि मटीरियल का उपयोग करने से एक-दो महीने पहले ही साईट पर इसके पहुँचने की प्रक्रिया पूरी हो जिससे बाहरी और असामाजिक तत्वों द्वारा मटीरियल का नुकसान न हो और कार्य एजेंसी द्वारा उसे तुरंत उपयोग में ले लिया जाए. यहाँ ध्यान देने वाली बात यह भी है कि सेंट्रल स्टोर में रखने के बाद वहां से जब दुबारा उक्त मटीरियल फ़ील्ड यूनिट्स के लिए जारी किया जाता है तो उसमे अनियमितता किए जाने और मटीरियल कम दिए जाने की तमाम शिकायतें पूर्व में सम्बंधित कर्मचारियों द्वारा की जाती रही हैं. चूँकि फ़ील्ड यूनिट्स में कार्यरत कर्मचारियों को सेट में कम मटीरियल मिलता है और सेट में भी जो मटीरियल दिया जाता है उसकी कुछ फिटिंग्स की संख्या में कमी रहती है, जिसके चलते फ़ील्ड यूनिट्स के सम्बंधित कर्मचारियों के वेतन से भविष्य में प्रोजेक्ट की समाप्ति के बाद रिकवरी होना तय है, जो की कतई न्यायसंगत नहीं होगा.  

इसके अलावा कई बार फ़ील्ड यूनिट्स के कर्मचारियों द्वारा सेंट्रल स्टोर के लोगों से यह भी निवेदन किया जाता रहा है कि सेट में वह जो मटीरियल दे रहे हैं या जारी कर रहे हैं, उसे इशू नोट के पीछे अथवा इशू नोट में दर्ज कर दिया जाए, मगर सेंट्रल स्टोर के कामचोर कर्मचारियों द्वारा यह इसलिए नहीं किया जा रहा है, क्योंकि इसमें बहुत भारी धांधली है और 'सेट' के नाम पर यहाँ बहुत लूट हो रही है. इस लूट में सेंट्रल स्टोर कर्मियों और सप्लायरों की पूरी मिलीभगत बताई जाती है. 

अतः रेलवे के हित में सर्वथा यही उचित होगा कि निर्माण विभाग से सम्बंधित सभी मटीरियल निर्धारित प्रोजेक्ट के फ़ील्ड स्टोर अथवा यार्ड/स्टेशन में सम्बंधित सप्लायरों द्वारा सीधे सप्लाई किया जाना चाहिए. जैसा कि अन्य सभी रेलों में हमेशा से होता चला आ रहा है और वहां यही प्रक्रिया अपनाई जा रही है. इसके साथ ही 'सेट' में दिया गया मटीरियल उसके नाम और संख्या के अनुसार इशू नोट में दर्ज होना चाहिए. आश्चर्य है कि पू.म.रे. की ओपन लाइन के सेंट्रल स्टोर में भी यह प्रक्रिया अपनाई जा रही है, मगर वहीँ नाक के नीचे निर्माण संगठन में इस पर अमल नहीं हो रहा है. 

यह भी पता चला है कि यहाँ जिस मटीरियल का उपयोग काफी बाद में होना था उसकी खरीद काफी पहले यानि करीब 4-5 साल पहले कर ली गई थी और यह प्रक्रिया अब भी चल रही है. इससे रेल राजस्व को भारी नुकसान हुआ है. इसे रोका जाना चाहिए और मटीरियल के उपयोग से 2 महीने पहले उसकी खरीद सुनिश्चित की जानी चाहिए. इसके अलावा जिस तरह डिप्टी सीई/वर्क्स, महेन्द्रू घाट, पटना के द्वारा सभी फ़ील्ड यूनिट्स की जरुरत के आधार पर कम्बाइन टेंडर करके पाकुर एवं राजग्राम सेंट्रल स्टोर से सम्बंधित फ़ील्ड यूनिट्स को सीधे स्टोन बलास्ट और स्लीपर्स की सप्लाई सुनिश्चित की जाती है, उसी तरह पी-वे मटीरियल की सप्लाई भी सीधे फ़ील्ड यूनिट्स को ही की जानी चाहिए. इससे जहाँ भविष्य में फ़ील्ड यूनिट्स की कम मटीरियल सप्लाई होने की शिकायत ख़त्म हो जाएगी, वहीँ रेलवे राजस्व की भारी बचत भी होगी और प्रत्येक सेंट्रल स्टोर्स में नियुक्त करीब 25-30 कर्मचारियों का निर्माण संगठन में कहीं अन्यत्र ज्यादा सार्थक उपयोग किया जा सकेगा.

बीसीएन/बोबियन का रेट कम हुआ..

'रेलवे समाचार' की मुहिम के चलते और पू.म.रे. सतर्कता संगठन द्वारा की गई कार्यवाही के बाद आल टाइप वैगन के हिसाब से बीसीएन/बोबियन का पहले जो रेट 42 रु. से 58 रु. के बीच था, वह अब नए टेंडरों में 16 रु. से 20 रु. के बीच निर्धारित किया गया है. इससे अब पू.म.रे. में प्रत्येक क्यूबिक मीटर स्टोन बलास्ट की अनलोडिंग में करीब 26 रु. से 38 रु. की भारी बचत संभव हो पाई है. इसी प्रकार पूर्व में 'रेलवे समाचार' द्वारा मिट्टी की जाँच (स्वाइल टेस्टिंग) में सिंगल लिमिटेड टेंडर (एसएलटी) प्रक्रिया में हो रही भारी धांधली को उजागर किए जाने के बाद पूर्व सीएओ/सी श्री सुबोध कुमार जैन ने एसएलटी को बंद करके इसमें ओपन टेंडर प्रक्रिया शुरू करा दी थी, जिससे अब यह काम पहले की अपेक्षा पांच गुना कम रेट पर हो रहा है और इसमें अबतक करोड़ों रु. की बचत हुई है.

सेक्शनों का टेकओवर नहीं किया 

पू.म.रे. समस्तीपुर मंडल के सीतामढ़ी - रुन्नी सैदपुर और सीतामढ़ी - बरगेनिया सेक्शनों का सीआरएस निरीक्षण और यात्री गाड़ियों का परिचालन शुरू होने के आज करीब सात महीने बीत जाने के बाद भी इंजीनियरिंग विभाग ओपन लाइन ने टेकओवर नहीं किया है. ज्ञातव्य है कि उक्त दोनों सेक्शनों का सीआरएस निरीक्षण 19 फरवरी को और यात्री गाड़ियों का परिचालन 12 अप्रैल 2011 को स्थानीय सांसद अर्जुन राय द्वारा सवारी गाड़ी को हरी झंडी दिखाकर डीआरएम और जीएम की उपस्थिति में किया गया था. जबकि जून में इस विषय में पूछे जाने पर डीआरएम/समस्तीपुर श्री त्रिवेदी ने कहा था कि जल्दी ही उक्त दोनों सेक्शन ओपन लाइन को सौंप दिए जाएँगे, परन्तु तीन महीने और बीत जाने के बाद भी ओपन लाइन द्वारा इनका टेकओवर किए जाने के प्रति कोई रूचि नहीं दिखाई जा रही है. क्या इसका मतलब यह निकला जाए कि ओपन लाइन द्वारा किसी बड़ी दुर्घटना का इंतजार किया जा रहा है, जिससे सारा दोष निर्माण विभाग पर डाला जा सके? इसके अलावा जब रेलवे बोर्ड ने इस सम्बन्ध में सारी प्रक्रिया पहले से ही निर्धारित की हुई है तो इस देरी के लिए ओपन लाइन को जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया जा रहा है और तदनुरूप अबतक उसके खिलाफ कारवाई क्यों नहीं की गई है? यह सवाल यहाँ कर्मचारियों के बीच बड़ी शिद्दत से पूछा जा रहा है. 

Saturday, August 20, 2011


'गंदगी' पर 'गंदगी' फ़ैलाने पर 

उतारू कुछ रेलवे बोर्ड अधिकारी 

वैक्यूम टॉयलेट के टेंडर में जर्मन कंपनी का फेवर करने का प्रयास 

नई दिल्ली : जर्मन कंपनी द्वारा निर्मित जिन एलएचबी कोचों की कपलिंग को भारतीय रेल के जो यांत्रिक इंजीनियर आजतक ठीक नहीं कर पाए हैं और जिनसे लाखों यात्रियों को रोज झटके लग रहे हैं, वही यांत्रिक इंजीनियर अब एक जर्मन कंपनी के वैक्यूम टॉयलेट मंगाकर भारतीय रेल में और ज्यादा गंदगी फ़ैलाने की कोशिश कर रहे हैं. पता चला है कि वैक्यूम टॉयलेट के टेंडर में एक जर्मन कंपनी को रेलवे बोर्ड के कुछ अधिकारी फेवर करने का प्रयास कर रहे हैं, जिसमे एक बोर्ड मेम्बर की भूमिका प्रमुख बताई जा रही है. 

इस सन्दर्भ में प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रायोगिक तौर पर फ़िलहाल 80 वैक्यूम टॉयलेट का एक ग्लोबल टेंडर (No. 2011/Development cell/ICCI/2) रेलवे बोर्ड द्वारा जारी किया गया है, जो कि 12 अगस्त को खुलना था. मगर इसके खुलने की तारीख अब आगे बढाकर 28 सितम्बर कर दी गई है. बताते हैं कि यह टेंडर कुल 2.40 करोड़ का है, जिसके अनुसार प्रति वैक्यूम टॉयलेट की करीब कीमत 3 लाख रूपये आती है. 

रेलवे बोर्ड के हमारे विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार यह टेंडर और इसकी शर्तें खासतौर पर उक्त जर्मन कंपनी को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं. जैसे 1000 से ज्यादा वैक्यूम टॉयलेट बनाने, लगाने और रखरखाव करने का अनुभव रखने वाली कंपनी ही इस टेंडर में शामिल हो सकती है. सूत्रों का कहना है कि सिर्फ उक्त जर्मन कंपनी ने ही 1200 ऐसे वैक्यूम टॉयलेट बनाने, लगाने और रखरखाव करने का दावा पेश किया है, बाकी दुनिया भर में ऐसी कोई अन्य कंपनी नहीं है जो यह काम कर रही हो. मगर हमारे सूत्रों का कहना है कि उक्त जर्मन कंपनी ने वास्तव में ही 1200 वैक्यूम टॉयलेट बनाए-लगाए हैं, इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, और न ही इनकी 'गिनती' करने के लिए बोर्ड का कोई यांत्रिक अधिकारी जर्मनी गया था. तथापि सूत्रों का कहना है कि एक खास बोर्ड मेम्बर द्वारा इस जर्मन कंपनी का भरपूर फेवर किया जा रहा है, क्योंकि बताते हैं कि इस जर्मन कंपनी ने उक्त बोर्ड मेम्बर को एडवांस में न सिर्फ करोड़ों रूपये दिए हैं बल्कि रिटायर्मेंट के बाद भी कंपनी की सेवाएँ उसे ऑफ़र कर रखी हैं? 

हमारे सूत्रों का कहना है कि उक्त जर्मन कंपनी वैक्यूम टॉयलेट्स की सिर्फ कम्पूटर आधारित ड्राइंग-डिजाइन तैयार करती है मगर वह इन्हें खुद निर्माण (मैन्युफैक्चर) नहीं करती है. बल्कि बाहर से बनवाकर इनकी सप्लाई करती है. जो कि एक ट्रेडिंग है और यह काम कोई भी व्यक्ति कर सकता है. सूत्रों का कहना है कि इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि उक्त जर्मन कंपनी ने 1200 वैक्यूम टॉयलेट्स लगाए ही हैं? इसके अलावा जब सिर्फ एक रेक में ही 80 टॉयलेट्स की आपूर्ति, स्थापना और रखरखाव का टेंडर निकला जाना था, तो इसके लिए न्यूनतम 1000 टॉयलेट्स के निर्माण, स्थापना और रखरखाव के अनुभव की शर्त टेंडर में क्यों जोड़ी गई? हालाँकि सूत्रों का कहना है कि इस शर्त के चलते ही टेंडर को ज्यादा से ज्यादा प्रतिस्पर्धी होने सीमित किया गया है. इसी से यह जाहिर होता है कि इसमें एक कंपनी विशेष का फेवर किया जा रहा है.

प्राप्त जानकारी के अनुसार इस मामले में रेलवे बोर्ड ने 28 मार्च 2011 को एक प्री-बिड मीटिंग बुलाई थी. इस मीटिंग में इस प्रकार के टॉयलेट्स का निर्माण करने वाली अथवा निर्माण गतिविधियों से जुड़ी कई देशी-विदेशी कंपनियों और उनके प्रतिनिधियों ने भाग लिया था. बताते हैं कि तब भी बोर्ड को यह उम्मीद नहीं थी कि इस मीटिंग में इतनी ज्यादा कंपनियां आ जाएंगी. यही टेंडर में भी हुआ. सूत्रों का कहना है कि उक्त मीटिंग में कंपनियों ने इस बहुकरोड़ी प्रोजेक्ट पर रेलवे से धैर्य से काम करने और ज्यादा से ज्यादा कंपनियों को मौका देकर प्रतिस्पर्धापूर्ण काम लेने का सुझाव प्रमुखता से दिया था. बताते हैं कि उक्त मीटिंग में यह भी निर्णय लिया गया था कि कंपनियों द्वारा दिए गए सुझाओं पर आरडीएसओ द्वारा एक पुख्ता रिपोर्ट तैयार करवाकर रेलवे के अंतिम निष्कर्षों के आधार पर न सिर्फ टेंडर की सेवा-शर्तों को तय किया जाएगा बल्कि वह निष्कर्ष कंपनियों को भी भेजे जाएँगे. मगर ये आजतक नहीं भेजे गए हैं.

मगर हमारे विश्वसनीय सूत्रों का कहना है कि आरडीएसओ ने उक्त रिपोर्ट समय से तैयार कर ली थी मगर एक खास बोर्ड मेम्बर के इशारे पर यह रिपोर्ट आजतक बोर्ड को नहीं भेजी गई है. इसका कारण पूछे जाने पर सूत्रों का कहना है कि इस रिपोर्ट के न आने का बहाना बनाकर ही उक्त जर्मन कंपनी को प्रस्तावित टेंडर 12 अगस्त को आवंटित किया जाना था. परन्तु 'रेलवे समाचार' द्वारा इस सम्बन्ध में बोर्ड और आरडीएसओ में की जा रही पूछताछ के कारण 11 अगस्त की शाम को अचानक इसकी तारीख बढाकर 28 सितम्बर कर दी गई. हालाँकि आरडीएसओ और कई जोनल रेलों के तमाम अधिकारियों का मानना है कि भारत के लोग इस तरह के टॉयलेट्स के उपयोग के लिए न तो अभी तैयार हैं और न ही उन्हें इनके इस्तेमाल की कोई जानकारी ही है. उनका कहना था कि भारतीय रेल के कोचों में लगे पश्चिमी पद्धति के टॉयलेट्स की दुर्दशा को देखकर इन भावी वैक्यूम टॉयलेट्स की भावी स्थिति का अंदाज  अभी से लगाया जा सकता है. 

हमारे सूत्रों का कहना है कि यह भारतीय रेल का सबसे बड़ा घोटाला होने जा रहा है, क्योंकि इसका सारा खेल वैक्यूम टॉयलेट्स के सप्लाई कांट्रेक्ट में नहीं बल्कि ऐनुअल मेंटिनेंस कांट्रेक्ट (एएमसी) में होने वाला है. सूत्रों का कहना है कि उक्त जर्मन कंपनी की विशेष रूचि इसी एएमसी में है, जहाँ उसे करोड़ों का मुनाफा मुफ्त में मिलने वाला है. जबकि सूत्रों का कहना है कि कुछ अन्य विदेशी कंपनियों के साथ-साथ कई देशी कंपनियां भी इस क्षेत्र में उक्त जर्मन कंपनी कहीं बेहतर सेवा-सुविधा मुहैया कराने में सक्षम हैं, मगर वह 'सुविधा-शुल्क' देने में पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन्हें जानबूझकर दरकिनार किया जा रहा है. प्राप्त जानकारी के अनुसार भारतीय रेल का यह टॉयलेट प्रोजेक्ट करीब 50 से 60 हज़ार करोड़ रूपये का है, जो कि कई चरणों में लागू होना है. यानि आने वाले समय में सर्वसामान्य भारतीय रेल यात्री भी 3-4 लाख रूपये की टॉयलेट शीट पर बैठकर मल त्याग करते हुए स्वयं को 'राजा और कलमाड़ी' के समकक्ष महसूस कर सकेगा? जहाँ जर्मन कंपनी द्वारा निर्मित एलएचबी कोचों की कपलिंग को आजतक दुरुस्त नहीं किया जा सका है, वहां अब एक और जर्मन कंपनी द्वारा निर्मित वैक्यूम टॉयलेट्स का क्या हाल होगा, यह तो उस पर बैठने के बाद लगने वाले झटकों से ही तय हो पाएगा..!! 

Thursday, August 18, 2011

रेल अधिकारियों के प्रमोशन पर भारी संकट


वेतन देने हेतु क़र्ज़ लेने को मजबूर हो गई रेलवे 
  • ख़त्म हो जाएंगी वर्कचार्ज पोस्टें 
  • एडहाक प्रमोशन भी नहीं मिल पाएगा 
  • वर्कचार्ज एवं एडहाक पोस्टों का एक्सटेंशन खतरे में 
  • सितम्बर के बाद बहुत से अधिकारी लौट सकते हैं अपनी पूर्व स्थिति में..
  • सभी कैडरों में 140 से अधिक हैं एसएजी अधिकारी 
अब स्थिति यह आ गई है कि जहाँ भारतीय रेल को अपने करीब 13.61 लाख रेल कर्मचारियों को मासिक वेतन देने के लिए बाहर से 2000 करोड़ रूपये का क़र्ज़ लेने पर मजबूर होना पड़ रहा है, वहीँ इसके करीब 140 सीनियर एडमिनिस्ट्रेटिव ग्रेड (एसएजी) के अतिरिक्त (एक्सेस) अधिकारियों को घर बैठाकर या फर्जी ट्रेनिंग पर भेजकर वेतन-भत्तों सहित सारी सुविधाएँ मुफ्त में देकर सरकारी राजस्व को हर महीने करोड़ों रूपये का चूना लगाया जा रहा है. बताते हैं कि रेलवे के पास जितने स्वीकृत पद नहीं हैं उससे ज्यादा प्रमोशन दे दिए गए हैं. इसी वजह से यह विकट स्थिति पैदा हुई है. पर्याप्त 'प्लान आउट ले' न होने के कारण ही इन 140 अतिरिक्त एसएजी अधिकारियों को घर बैठाकर अथवा फर्जी मैनेजमेंट ट्रेनिंग पर भेजकर इनके सभी वाजिब वेतन-भत्तों का भुगतान करना पड़ रहा है. इस प्रकार देखा जाए तो प्रत्येक कैडर में औसतन 15 से 20 एसएजी अधिकारी एक्सेस हैं. जबकि अभी प्रत्येक कैडर में सैकड़ों अधिकारी एसएजी में प्रमोशन के लिए पिछले 2 - 3 साल से इंतजार में हैं. बताते हैं कि ऐसे 'वेट लिस्टेड' अधिकारियों को सेलेक्शन ग्रेड में ही एसएजी का ग्रेड देकर उनके असंतोष को रोक कर रखा गया है. तथापि उनके अंदर पनप चुके अवसाद के कारण उनके काम की गुणवत्ता प्रभावित हुई है, इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता..

इसके अलावा अब अधिकारियों की वर्कचार्ज पोस्टों और एडहाक प्रमोशन पर भारी संकट मंडराने लगा है.. इससे सबसे ज्यादा एस एंड टी, सिविल, एकाउंट्स और इलेक्ट्रिकल यह चार विभाग प्रभावित होने वाले हैं. प्राप्त जानकारी के अनुसार इन चारों विभागों में वर्कचार्ज पोस्टों की संख्या क्रमशः 68%, 64%, 61% और 54% है. जबकि बाकी विभागों, स्टोर्स में 36%, मैकेनिकल में 32%, ट्रैफिक में 26% और पर्सनल में 27% वर्कचार्ज पोस्टें हैं. रेलवे बोर्ड में हमारे विश्वसनीय सूत्रों का कहना है कि सितम्बर के बाद यदि इन वर्कचार्ज पोस्टों को एक्सटेंशन नहीं दिया जाता है तो एस एंड टी, सिविल, एकाउंट्स और इलेक्ट्रिकल इन चार विभागों का काम तो न सिर्फ लगभग ठप ही हो जाएगा, बल्कि इनमे तमाम अधिकारियों के ड्यू प्रमोशन भी लम्बे समय तक के लिए अटक जाएँगे. सूत्रों का कहना है कि वर्कचार्ज पोस्टों में समस्या यह आ रही है कि 'प्लान आउट ले' में पू. रे., द. पू. रे., पू.सी.रे. और मेट्रो रेलवे को ही सारा पैसा झोंक दिया गया है क्योंकि इन्हीं चारों रेलों के अंतर्गत पूर्व एवं वर्तमान रेलमंत्री तथा उनकी पार्टी का संपूर्ण कार्यक्षेत्र आता है. इसलिए बाकी रेलों के पास काम करवा लेने के बाद न तो अपने ठेकेदारों को और न ही अपने कर्मचारियों को भुगतान करने के लिए पैसा है. केंद्र सरकार अपनी कमजोरियों में फंसी हुई है, इसलिए उसे भारतीय रेल में सतत चल रहे 2जी स्पेक्ट्रम, सीडब्ल्यूजी जैसे महाघोटालों की कोई चिंता नहीं है, क्योंकि उसने सत्ता की समर्थक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के लिए भारतीय रेल को एक चारागाह बना दिया है..? 
-प्रस्तुति : सुरेश त्रिपाठी 

प. रे. के मोटरमैनो की दादागीरी

मुंबई : पिछले करीब २-३ सालों से प. रे. के मोटरमैनो की दादागीरी रेल प्रशासन का सिरदर्द बनी हुई है. पूरा रेल प्रशासन मोतार्मैनों की इस दादागीरी से आजिज आ गया है. मगर अबतक इस समस्या का कोई स्थाई समाधान न हो पाने का एकमात्र कारण स्वयं रेल प्रशासन में इच्छाशक्ति की कमी होना है. रेल प्रशासन की इसी किंकर्तव्यविमूढ़ता के कारण गुरुवार, १८ अगस्त को फिर एक बार प. रे. के मुट्ठी भर मोटरमैनो ने लाखों उपनगरीय रेल यात्रियों को ऐसे मौके पर भारी मुशीबत में डाल दिया जब 'बेस्ट' की बसों की भी हड़ताल चल रही थी. प.रे. प्रशासन अपने इन मुट्ठी भर मोटरमैनो के अलग कैडर को म.रे. की ही तरह रनिंग कैडर में मर्ज करने का निर्णय क्यों नहीं ले पा रहा है, यह समझ से परे है.. क्योंकि इस सम्बन्ध में रेलवे बोर्ड ने बहुत पहले ही अपनी हरी झंडी दिखा दी थी और प.रे. के दोनों मान्यताप्राप्त श्रम संगठन भी इसके लिए रेल प्रशासन का सहयोग करने की घोषणा कर चुके हैं. परन्तु फिर भी रेल प्रशासन ऐसा क्यों नहीं कर रहा है, इसका उसके पास कोई वाजिब जवाब भी नहीं है. गत वर्ष जब मोटरमैनो ने इसी तरह अचानक कई बार लोकल गाड़ियों को रोक कर रेल प्रशासन की नाक में दम कर दिया था, तब राज्य सरकार को भी इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा था. तभी प.रे. के अलग मोटरमैन कैडर को रनिंग स्टाफ में मर्ज किए जाने का एक प्रस्ताव जीएम/प.रे. के समक्ष प्रस्तुत किया था. सबको इस बात का पूरा भरोसा था की जीएम इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दंगे मगर ३१ जनवरी २०११ को सेवानिवृत्त होने से पहले तत्कालीन जीएम/प.रे. श्री आर. एन. वर्मा ने ऐसा नहीं किया और इस फाइल को वे जैसी की तैसी ही छोड़कर चले गए. इसका परिणाम सामने है की हर छोटी-बड़ी और गैरमामूली बात पर मोटरमैनो की दादागीरी जारी है जिससे प.रे. के सभी अधिकारी और लाखों दैनिक उपनगरीय यात्री इन मुट्ठी भर अहंमन्य मोटरमैनो के बंधक बनकर रह गए हैं. 

Friday, August 12, 2011


एमएल बने कुलभूषण 

एमएस हुए ए.के.वोहरा 

नई दिल्ली : आखिर करीब डेढ़ महीने कि जद्दो-जहद के बाद प.रे. के महाप्रबंधक का अतिरिक्त कार्यभार संभाल रहे म.रे. के महाप्रबंधक श्री कुलभूषण को मेम्बर इलेक्ट्रिकल (एमएल), रेलवे बोर्ड बना दिया गया. इसी के साथ द.पू.म.रे. के महाप्रबंधक का अतिरिक्त कार्यभार संभाल रहे पू.त.रे. के महाप्रबंधक श्री ए.के.वोहरा को मेम्बर स्टाफ (एमएस) बनाया गया है. प्राप्त जानकारी के अनुसार बड़े ही अनपेक्षित रूप से शुक्रवार, 12 अगस्त की शाम करीब 8  बजे प्रधानमंत्री ने इन दोनों बोर्ड मेम्बर्स कि नियुक्ति सम्बन्धी फाइल पर हस्ताक्षर कर दिए थे. परन्तु काफी देर हो जाने और डीओपीटी भी बंद हो जाने से कल यह आदेश जारी नहीं हो पाए थे, मगर इनके आज शाम तक जारी हो जाने कि पूरी उम्मीद है. 

ज्ञातव्य है कि गृह मंत्रालय द्वारा श्री वोहरा को एमएल बनाए जाने सम्बन्धी की गई टिप्पणी के बाद पीएमओ से यह फाइल सोमवार, 8 अगस्त को वापस आ गई थी..जिससे पूरी रेलवे में काफी मायूसी सी छा गई थी, और सब यह कहने लगे थे कि अब भारतीय रेल का ईश्वर ही मालिक है. जहाँ विगत में मेम्बर इंजीनियरिंग (एमई) कि नियुक्ति के लिए एकदम से उतावले हो गए रेलवे बोर्ड ने दिल्ली हाई कोर्ट में यह कहकर गुहार लगाई थी कि एमई कि नियुक्ति न होने से पूरी रेलवे ठप्प हो जाएगी, वहीँ पिछले डेढ़ महीने से बोर्ड मेम्बरों के तीन-तीन महत्वपूर्ण पद खाली पड़े होने के बावजूद रेलवे बोर्ड को इसकी कोई चिंता नहीं थी. यही नहीं अब भी मेम्बर ट्रैफिक (एमटी) कि नियुक्ति का फैसला नहीं हो पाया है. यह अत्यंत शर्म कि बात है, क्योंकि जहाँ अन्य केंद्रीय मंत्रालयों में महीनों पहले सबको यह पाता होता है कि कौन आगे क्या बनेगा, वहीँ रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) मदारियों का अड्डा बनकर रह गया है. जहाँ सिर्फ वही होता है जो 'जमूरा' चाहता है, क्योंकि 'मदारी' का उस पर कोई जोर नहीं है.

इसके अलावा जोनल महाप्रबंधकों के 8 पद महीनो से खाली पड़े हैं जिनके बारे में किसी को कोई चिंता नहीं है, जबकि जीएम के न रहने से जोनो की तमाम प्रशासनिक व्यवस्था चरमरा गई है. यही नहीं, इस राजनीतिक जोड़तोड़ और सौदेबाजी ने कई कार्यक्षम रेल अधिकारियों का न सिर्फ कैरियर चौपट करके रख दिया है, बल्कि पूरी भारतीय रेल के भविष्य को भी अंधकारमय बना दिया है. उम्मीद ही की जा सकती है कि अब एमटी और कुल 11 जोनल महाप्रबंधकों की भी नियुक्ति जल्दी ही हो जाएगी. तथापि एमटी की पोस्ट पर जो गलत और गैर-क़ानूनी परंपरा 'विषधर' डाल गए हैं, फ़िलहाल वही जारी रहने के संकेत मिल रहे हैं. 
तैयारी करके नहीं आए रेलवे के वकील  

पीआईएल की अगली तारीख 28 सितम्बर को 

नयी दिल्ली : मेम्बर ट्रैफिक (एमटी) और चेयरमैन, रेलवे बोर्ड (सीआरबी) के पद पर विवेक सहाय की अनियमिततापूर्ण नियुक्ति के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में 'रेलवे समाचार' के सम्पादक सुरेश त्रिपाठी द्वारा 18 मई 2011 को दाखिल की गई जनहित याचिका (पीआईएल) की बुधवार, 10 अगस्त को हुई सुनवाई में अब अगली तारीख 28 सितम्बर हो गई है, क्योंकि केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी), कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) और प्रधान मंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने अब तक अपना कोई जवाब दाखिल नहीं किया है. इसके अलावा उनके वकील भी बुधवार की सुनवाई के दौरान कोर्ट में हाजिर नहीं थे. हालाँकि प्रतिवादी नंबर - 1 सेक्रेटरी, रेलवे बोर्ड और प्रतिवादी नम्बर - 2 विवेक सहाय की तरफ से रेल मंत्रालय के सयुंक्त सचिव (राजपत्रित) शिवदान सिंह ने जवाब और हलफनामा रेलवे के वकील आर. एन. सिंह के माध्यम से अदालत में दाखिल किया. जिसमे उन्होंने कहा है कि श्री सहाय की नियुक्ति नियमानुसार और डीओपीटी के सर्कुलर (OM) No. 11012/11/2007-Estt.(A) के अनुसार की गई है. उनकी तरफ से हाजिर हुए वरिष्ठ अधिवक्ता श्री वेंकटरमणी ने अदालत से अर्ज किया कि चूँकि श्री सहाय 30 जून को रिटायर हो गए हैं इसलिए इस पीआईएल का अब कोई मतलब नहीं रह गया है, अतः इसे न सिर्फ ख़ारिज कर दिया जाना चाहिए बल्कि याचिकाकर्ता पर भारी जुर्माना भी लगाया जाना चाहिए. 


श्री वेंकटरमणी को बीच में टोकते हुए जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा कि वह शायद पूरी तैयारी के साथ नहीं आए हैं क्योंकि वादी ने अपनी याचिका में पहले ही यह बात कही है कि प्रतिवादी नम्बर - 2 यानि विवेक सहाय 30 जून को सेवानिवृत्त हो जाएँगे. इसके साथ ही जस्टिस खन्ना ने यह भी कहा कि याचिका स्वीकार करने के समय ही यह स्पष्ट हो गया था कि यह मामला व्यक्ति विशेष का नहीं व्यवस्था का है. इसी के बाद मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र ने कहा कि यह मामला सुनवाई के योग्य है और रिटायर्मेंट के बाद भी 'को-वारंटो' लागू हो सकता है क्योंकि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी व्यवस्था दी है. उन्होंने रेलवे के वकील श्री वेंकट रमणी से कहा कि वे सुप्रीम कोर्ट का उक्त जजमेंट पढ़कर आएं अगली तारीख में इस मामले पर जिरह होगी.. इसी बीच वादी के वकील श्री के. बी. उपाध्याय ने पूछा कि श्री वेंकट रमणी प्रतिवादी नंबर - 1  सेक्रेटरी, रेलवे बोर्ड और प्रतिवादी नम्बर - 2 विवेक सहाय दोनों की तरफ से कैसे प्रस्तुत हो सकते हैं..? मुख्य न्यायाधीश ने वादी के वकील श्री उपाध्याय से कहा कि वे प्रतिवादी नंबर - १ के जवाब पर एक सप्ताह के भीतर अपना जवाब दाखिल करें. अदालत ने अगली तारीख 28 सितम्बर को सीवीसी, डीओपीटी और पीएमओ को भी जवाब और हलफनामा दाखिल किए जाने की हिदायत दी है. 

Monday, August 1, 2011

"जाट मरा तब जानिए जब तेरहवीं हो जाए..!!"


'विषधर' का प्रेत चला रहा है रेल मंत्रालय..

  • हाई पावर कमेटी में आने का हौव्वा बनाकर अपनी अहमियत बरकरार रखने का प्रयास कर रहे हैं विषधर उर्फ़ विवेक सहाय 
  • सीआरबी बनवाने की अहसानमंदी दिखाकर विनय मित्तल से अपने अधूरे कार्य करवाने का प्रयास कर रहे हैं विवेक सहाय 
  • अति महत्वपूर्ण और गोपनीय फाइलें बंगले पर मंगाकर देख रहे हैं विवेक सहाय
  • वी. एन. त्रिपाठी को आवंटित बंगला अपने नाम आवंटित करवाया विवेक सहाय ने 
  • पद पर रहते निजी कंपनियों के जो काम नहीं कर पाए थे, उन्हें अब अपने अहसान तले दबे मित्तल से करवाने का प्रयास कर रहे हैं विवेक सहाय 
जैसी कि विवेक सहाय की 'फितरत' रही है, उसके अनुसार उनका 'विषधर' नामकरण 'रेलवे समाचार' ने नहीं, बल्कि उनके एक 'अति प्रिय' रहे रेल अधिकारी ने ही काफी पहले किया था. अब यह बात अलग है कि 'रेलवे समाचार' ने इस नाम को इससे पहले उनके लिए बहुत ज्यादा उपयुक्त नहीं मना था, मगर पिछले दो-तीन वर्षों में उनके जो 'कृत्य' सामने आये हैं, उनसे अब लगने लगा है कि वास्तव में उनका यह नामकरण एकदम उचित हुआ था. रेल सेवा में रहते, खासतौर पर जीएम/उ.म.रे., जीएम/उ.रे., एमटी/रे.बो. और सीआरबी के पदों पर रहते, विवेक सहाय का जो 'चरित्र' उभर कर सबके सामने आया और जिस तरह इन पदों को हथियाने के लिए जोड़-तोड़ एवं तिकड़मबाजी उन्होंने की तथा जिस तरह उन्होंने पूरी रेल व्यवस्था को नष्ट - भ्रष्ट किया, अपने विरोधियों को उत्पीड़ित एवं अपने चहेतों को उपकृत किया, उस परिप्रेक्ष्य में उनका यह नामकरण बिलकुल सटीक हुआ है. 

अब रिटायर होने के बाद भी उनका यह 'चरित्र' कायम है. अब भी वह खुलेआम यह कहते फिर रहे हैं कि रेलवे बोर्ड का रिमोट तो मेरे हाथ में है. यह बिलकुल संभव है कि ऐसा उन्होंने अवश्य कहा होगा, बताई गई इस बात पर भरोसा किया जा सकता है, क्योंकि जब यह महाकाईयां और बड़बोला आदमी सचिन तेंदुलकर से अपनी तुलना करके अपने मुंह मियां मिट्ठू बन सकता है, तो यह अपने से जूनियर अधिकारियों के सामने उनको अपनी दहशत में बनाये रखने हेतु अपनी 'ऊँची' करने के लिए कुछ भी हांक सकता है. विश्वसनीय सूत्रों का कहना है कि विषधर एक बड़ी विषैली हंसी हँसते हुए कह रहे हैं कि निजी कंपनियों के जो काम वह पद पर रहते नहीं कर पाए थे, वे सब अब नए सीआरबी से करवाएँगे. सूत्रों का कहना है कि विषैली हंसी की इसी झोंक में विषधर यह भी कह जाते हैं कि मंत्री को पटखनी देकर विनय मित्तल को सीआरबी बनवाया है, तभी तो वह अब मेरे सामने अपनी दुम हिला रहे हैं.. 

विषधर यह भी दावा करते फिर रहे हैं की मलवां में हुई कालका मेल की दुर्घटना के बाद सारा बैकडोर गाइडेंस तो उन्हीं का था.. वह ये भी दावा कर रहे हैं कि दुर्घटना से मंत्री के नाराज होने के बाद भी उन्होंने मित्तल को बचा लिया, और इस प्रकार उन्होंने मित्तल को और ज्यादा अपने अहसान के नीचे दबा लिया है. सूत्रों का कहना है कि 'हालाँकि मित्तल साहब भी अभी विषधर के सामने दंडवत हो रहे हैं..जिससे विषधर को ऐसे घटिया दावे करने का मौका मिल रहा है.' सूत्रों का कहना है कि यह बात तो सही है कि मित्तल साब विषधर की हर सही - गलत बात या सलाह पर आँख मूंद कर अमल कर रहे हैं.. मगर उनका यह भी कहना है कि यह सब जानते हैं कि मित्तल साब बेवकूफ नहीं हैं, यह बात अलग है कि उनके पास 'शकुनि बुद्धि' और 'जहरीला मानस' नहीं है..क्योंकि इन सबका ठेका तो विषधर के पास बहुत पहले से है और अब तो विषधर ने इन सबका पेटेंट भी अपने नाम करा लिया है..

सूत्रों का कहना है कि रिटायर्मेंट के बाद भी चतुर्थ श्रेणी स्टाफ की पूरी फ़ौज अभी - भी रेलवे के पूरे वेतन - भत्तों के साथ विषधर के बंगले पर काम कर रही है. यह सब मित्तल साब की मेहरबानी से ही हो रहा है क्योंकि वह विषधर के अहसानमंद हैं..और इससे उन्हें मना नहीं कर पा रहे हैं. सूत्रों कहना है कि इसी वजह से विषधर द्वारा कई गोपनीय फाइलें बंगले पर अभी-भी मंगाई जा रही हैं. उनका कहना है कि हद तो तब हो गई जब खुद मित्तल साब विषधर की सलाह के लिए ये अति गोपनीय फाइलें ले जाकर स्वयं विषधर को बंगले पर दिखा रहे हैं. सूत्रों का कहना है कि इस बात की चर्चा तो काफी हो रही थी मगर इसकी पुष्टि तब हो गई जब विषधर ने एस. पी. मार्ग रेलवे आफिसर कालोनी में वी. एन. त्रिपाठी को आवंटित हुए बंगले को उन्हें ठेंगा दिखाते हुए अपने नाम आवंटित करा लिया. 

सूत्रों का यह भी कहना है कि मित्तल की मज़बूरी यह है कि मंत्री और सारे संत्री उनके खिलाफ हैं और बोर्ड मेम्बर भी फ़िलहाल उन्हें कोई भाव नहीं दे रहे हैं.. यहीं पर विषधर ने अपना दांव खेला है तथा मित्तल की इस असुरक्षा की भावना और हडबडाहट का पूरा फायदा उठाते हुए यह प्रचार कर दिया कि वह किसी भी तरह मैनेज करके हाई पावर कमेटी (एचपीसी) में आ जाएँगे और तब मित्तल को हर कदम पर ऊँगली पकड़कर चलेंगे..! सूत्रों का कहना है कि यदि ऐसा हो जाता है तो इसमें  कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि विषधर अपनी तिकड़म से कब क्या मैनेज कर लेंगे, पहले से कोई इसका अंदाज नहीं लगा सकता है.

सूत्रों का यह भी कहना है कि विषधर ने मित्तल को यह भी सलाह दी है कि मेम्बर टैफिक की पोस्ट को फ़िलहाल खाली ही रखा जाए. सूत्रों का कहना है कि इसके पीछे विषधर की मंशा यह है कि रिटायर्मेंट के बाद वह एचपीसी सहित सीआरबी और एमटी के पदों को भी चलाएँ..? इस बारे में पढ़ें www.railsamachar.com पर "नहीं हो सका बोर्ड मेम्बेर्स की नियुक्ति का फैसला"'रेलवे समाचार' का current issue.

सूत्रों द्वारा बताए गए उपरोक्त तमाम तथ्य यदि सही हैं तो 'रेलवे समाचार' की सलाह यह है कि श्री विनय मित्तल समय रहते विषधर उर्फ़ शकुनि की चाल को ठीक से और ध्यान लगाकर समझें और उनसे पर्याप्त दुरी बनाकर रखें, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि विषधर के प्रति अपना आभार व्यक्त करने के चक्कर में उनकी लुटिया ही डूब जाए..!! 

इस सलाह को श्री मित्तल कुछ इस तरह से समझ सकते हैं.. 

"डूबने वालों को साहिल से दिया जो मैंने हाथ...! 
वो मुझे भी डूबने का मशवरा देने लगे...!!"

निडर नाविक...

रेलवे बोर्ड और अन्य जोनल रेलों के उन रेल अधिकारियों को समर्पित, जो चापलूसी और चमचागीरी में लिप्त हैं...

उम्र बीती है चमचागीरी में, 
जिंदगी भर सलाम की खाई...!

प्रस्तुति : सुरेश त्रिपाठी