'ममता' के मोह को त्यागो सरदार जी..!
रेल बजट के तुरंत बाद केंद्र की सत्ता में भागीदार तृणमूल कांग्रेस और उसकी अध्यक्ष पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जिस तरह हमेशा की भांति अपनी घटिया तुनकमिजाजी दिखाते हुए सरकार को ब्लैकमेल करने की कोशिश की है, उसे अब कतई बर्दास्त नहीं किया जाना चाहिए. केंद्र सरकार को चाहिए कि वह अब ममता बनर्जी के प्रति अपनी 'ममता' का फ़ौरन त्याग करे. ममता बनर्जी चाहती हैं कि एक साफ-सुथरी छवि वाले रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को हटाकर एक ख़राब छवि वाले मुकुल राय को रेलमंत्री बना दिया जाए. कोलकाता की लिलुआ और कचारापारा रेलवे वर्कशाप से स्क्रेप की 'खरीदारी' कर-करके कथित राजनेता बन गए किसी व्यक्ति को यदि रेल महकमा थमा दिया गया तो यह निश्चित मान लिया जाना चाहिए कि वह व्यक्ति पूरी रेल को स्क्रेप में बेच डालने में कोई कोताही नहीं करेगा. इसके अलावा रेलवे के ही किसी स्क्रेप 'खरीदार', यहाँ 'खरीदार' का सन्दर्भ 'चोर' से लिया जाना चाहिए, क्योंकि कोई भी स्क्रेप खरीदार चोरी करने से कभी बाज नहीं आता है, को रेलमंत्री के रूप में यह देश कतई बर्दास्त नहीं करेगा. इसके साथ ही रेलवे के करीब 14 लाख रेलकर्मचारी और अधिकारी भी मुकुल राय को रेलमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहते हैं. इस सन्दर्भ में रेलवे की पांचो फेडरेशनो ने दिनेश त्रिवेदी को रेलमंत्री बनाए रखने और उनके द्वारा की गई रेल किरायों में वृद्धि का समर्थन करते हुए प्रधानमंत्री को संयुक्त ज्ञापन भी दिया है. ममता बनर्जी लगातार केंद्र सरकार को ब्लैकमेल करती आ रही हैं. इस बार उन्होंने इसकी हद पार कर दी है. उन्होंने दिनेश त्रिवेदी को हटाकर मुकुल राय को रेलमंत्री बनाए जाने की एक चिट्ठी भी प्रधानमंत्री को भेजी है.
इस बार प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेतृत्व को अपने सदविवेक, अगर थोड़ा-बहुत बचा हो तो, का परिचय देते हुए ठीक वैसा ही निर्णय लेना चाहिए, जैसा उन्होंने करीब चार साल पहले भारत - अमेरिका परमाणु समझौते पर शक्ति परीक्षण के समय वामपंथी पार्टियों की बाबत लिया था. पिछले लगभग तीन वर्षों से ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार के प्रति जैसा रवैया अपना रखा है, उसे देखते हुए, और कांग्रेस नेतृत्व में अगर थोड़ा भी आत्म-सम्मान बाकी है तो, उनकी पार्टी को अब एक दिन के लिए भी केंद्र सरकार के हिस्से के रूप में बर्दास्त नहीं किया जाना चाहिए. केंद्र की सत्ता में भागीदार होते हुए भी राष्टपति के अभिभाषण पर संशोधन प्रस्ताव लाकर और रेल बजट पेश करने के तुरंत बाद ही रेलमंत्री को हटा देने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाकर ममता बनर्जी ने देश की समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ अत्यंत घिनौना मजाक किया है. ममता बनर्जी की तुनकमिजाजी और घटिया राजनीति तथा ऊल-जलूल दलीलों को देखते हुए अब यह भी साफ दिखने लगा है कि उनके नेतृत्व में खुद पश्चिम बंगाल की लुटिया भी जल्दी ही डूब जाने वाली है.
ममता बनर्जी ने घटिया तर्क दिया है कि रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेल बजट प्रस्तुत करने से पहले उस पर पार्टी की राय नहीं ली थी. परंपरा के मुताबिक रेलमंत्री और वित्तमंत्री अपना - अपना बजट बनाने से पहले जिससे चाहें उससे फीडबैक ले सकते हैं, और वह लेते भी रहे हैं. इस बार भी यह राय उन्होंने सभी तबकों से ली है. इस बार रेलमंत्री ने तो इसके लिए सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों से खुद वहां जा-जाकर उनकी राय लेने में भी कोई परहेज नहीं दिखाया. नियम के मुताबिक एक बार बजट बना लेने के बाद उसमें मौजूद तथ्यों का खुलासा संसद के अलावा अन्य किसी के सामने नहीं किया जा सकता. ममता बनर्जी खुद दो बार रेलमंत्री रह चुकी हैं. इतनी साधारण मगर बुनियादी बात का उनको कोई ज्ञान न हो, ऐसा नहीं हो सकता. उनका कहना है कि दिनेश त्रिवेदी ने पार्टी की विचारधारा के खिलाफ जाकर गरीब तबके के रेलयात्रियों का किराया भी बढ़ा दिया. उन्हें गरीब रेलयात्रियों की तो बड़ी चिंता है, मगर उन्होंने पश्चिम बंगाल में जो पिछले एक वर्ष से लागू करके बिजली की दरें बढाई हैं, उससे पश्चिम बंगाल के गरीबों की चिंता उन्हें नहीं है? यह उनका कैसा दोमुंहापन है?
तुनकमिजाज और घटिया राजनीति की मिसाल बन चुकी ममता बनर्जी की समझ में यह सीधी सी बात क्यों नहीं आती है कि रेलवे हो या अन्य कोई सरकारी उद्यम, अगर वह खुद अपना खर्च नहीं निकलता है और अगर उसकी भरपाई सरकारी खजाने से करनी पड़ती है, तो इसका सर्वाधिक बोझ मुद्रा-स्फीति के रूप में पलट कर सबसे ज्यादा उस गरीब तबके के ऊपर ही पड़ता है. जिनमें से कुछ लोग तो शायद कभी रेल में पाँव भी नहीं रखते होंगे और जिनकी खैर-ख्वाही की झंडा-बरदारी ममता बनर्जी कर रही हैं. ममता बनर्जी की ऐसी घटिया और दिवालिया समझ, जिसके मुताबिक सरकार का काम किसी सस्ती लोकप्रियता के पीछे घिसटते रहने के सिवाय और कुछ भी नहीं है, सरकार तो क्या एक मामूली सी परचून की दूकान चलाने के लिए भी सर्वथा अक्षम है.
हमें यह मान लेने से अब कोई गुरेज नहीं करना चाहिए कि यहाँ सत्ता में भागीदारी की राजनीति अब सीधे 'गवर्नेंस' के साथ टकराव पर उतारू हो गई है. कोई भी सरकार इस तरह तो नहीं चल सकती है, और न ही काम कर सकती है कि उसके सारे विभाग अपने - अपने मंत्रियों के आलाकमान का हुक्म मानते हुए अलग-अलग दिशाओं में चलें. अगर ऐसी नौबत आ जाए, जो कि ममता बनर्जी की तुनकमिजाजी और ब्लैकमेल की घटिया राजनीति के चलते आ ही गई है, तो या तो विरोधी विचारधाराओं को (ममता बनर्जी को) बाहर का रास्ता दिखा दिया जाना चाहिए, अथवा अपनी थुक्का-फजीहत कराने के बजाय सरकार को ही अपनी गरिमा को बचाए रखने के लिए सत्ता से विदा होने का कड़वा फैसला कर लेना चाहिए. इस परिप्रेक्ष्य में अब यह पूरा देश प्रधानमंत्री और यूपीए नेतृत्व, दोनों से उपरोक्त दोनों में से किसी एक निर्णय पर जल्दी से जल्दी पहुँचने की अपेक्षा करता है.
प्रस्तुति : सुरेश त्रिपाठी
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