विवेक सहाय, पीएमओ, डीओपीटी,
सीवीसी और रेलवे बोर्ड को राहत
चार-चार विजिलेंस मामले पेंडिंग होने के बावजूद पीएमओ, डीओपीटी और सीवीसी की अंदरूनी अंडरस्टैंडिंग के तहत विवेक सहाय को पहले मेम्बर ट्रैफिक और बाद में सीआरबी बनाए जाने के खिलाफ 'रेलवे समाचार' द्वारा दाखिल की गई जनहित याचिका (पीआईएल) को दिल्ली हाई कोर्ट के नए चीफ जस्टिस श्री ए. के. सिकरी और जस्टिस श्री राजीव सहाय की बेंच ने 2 नवम्बर को ख़ारिज कर दिया. इससे न सिर्फ विवेक सहाय को, बल्कि पीएमओ, डीओपीटी और सीवीसी को भी भारी राहत मिल गई है. हालाँकि कोर्ट ने इनमे से किसी को भी किसी भी प्रकार से दोषमुक्त नहीं किया है, और न ही याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई विपरीत टिप्पणी की है, और न ही कोई पेनाल्टी लगाई है. परन्तु जिस ग्राउंड पर यह याचिका पूर्व चीफ जस्टिस श्री दीपक मिश्र और जस्टिस श्री संजीव खन्ना की पीठ ने दाखिल (एडमिट) की थी, उसे नजरअंदाज करके और याचिकाकर्ता के वकीलों की पूरी बात और बहस को सुने बिना या संज्ञान में लिए बिना जिस तरह से कोर्ट ने यह याचिका मात्र दो मिनट में ख़ारिज कर दी, वह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. कोर्ट का कहना था कि सम्बंधित अधिकारी रिटायर हो गया है और को-वारंटो का मामला नहीं बनता है, जबकि सम्बंधित अधिकारी के निकट भविष्य में रिटायर हो जाने के ग्राउंड पर यह याचिका कोर्ट ने दाखिल ही नहीं की थी, बल्कि यह याचिका तो कोर्ट ने इस ग्राउंड पर एडमिट की थी कि भविष्य में वरिष्ठ एवं योग्य अधिकारियों को दरकिनार करते हुए और विजिलेंस मामले पेंडिंग रहते हुए किसी अधिकारी को उपरोक्त उच्च पदों पर प्रमोट न किया जा सके, इस बारे में कोर्ट द्वारा दिशा-निर्देश दिए जाने के ग्राउंड पर यह याचिका एडमिट की गई थी. तब इसकी विस्तृत सुनवाई किए बिना और अपेक्षित दिशा-निर्देश जारी किए बिना इस याचिका को मात्र दो मिनट में ख़ारिज कर दिया जाना वास्तव में ही दुर्भाग्यपूर्ण है. अब इसका परिणाम यह होगा कि रेल मंत्रालय के बाबुओं और निहितस्वार्थी राजनीतिज्ञों का गठजोड़ अब और ज्यादा निरंकुश हो जाएगा. इसका ताज़ा उदाहरण श्री राजीव भार्गव का मामला है, जिन्हें प्रधानमंत्री द्वारा वर्ष 2008-09 के जीएम पैनल में पुनर्स्थापित किए जाने के बावजूद रेलवे बोर्ड के कुछ बाबुओं और राजनीतिज्ञों ने अपने निहितस्वार्थवश दरकिनार करके रख दिया है.
उल्लेखनीय है कि पिछली तारीख में माननीय जजों ने याचिकाकर्ता के वकीलों द्वारा सीवीसी और पीएमओ तथा डीओपीटी के अबतक जवाब दाखिल न किए जाने पर सवाल उठाए जाने पर नाराजगी जताते हुए उनके वकीलों को अपने जवाब अगली तारीख से पहले कोर्ट में दाखिल करने और इस मामले में को-वारंटो क्यों नहीं लागू हो सकता, इस पर कोर्ट को संतुष्ट करने का आदेश दिया था. पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्र और न्यायाधीश श्री संजीव खन्ना की पीठ ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार यह मामला भी को-वारंटो, (रिटायर्मेंट के बाद भी नियुक्ति ख़ारिज हो जाने), का है. इस पर रेलवे के वकील श्री वेंकटरमणी ने कहा था कि यह मामला को-वारंटो का नहीं है, तब विद्वान न्यायाधीशों ने कहा था कि अगली तारीख में वह कोर्ट को संतुष्ट करें और यह भी स्पष्ट करें कि इस मामले में को-वारंटो क्यों नहीं लागू हो सकता है? इस बात का भी वर्तमान पीठ ने कोई संज्ञान नहीं लिया. इसके अलावा इस मामले में प्रधानमंत्री से फ़ाइल पर 'सब्जेक्ट टू विजिलेंस क्लियरेंस' लिखवाए जाने से लेकर चार दिनों की राष्ट्रीय छुट्टियों के दौरान सीवीसी का विजिलेंस क्लियरेंस मैनेज किए जाने और उसी दिन 28 दिसंबर 2009 को रात को 8 बजे तत्काल नियुक्ति आदेश जारी कर दिए जाने, इसके ठीक 23 दिन बाद 20 जनवरी 2010 को सीवीसी द्वारा पेंडिंग विजिलेंस मामलों की जाँच रिपोर्ट से संतुष्ट न होने और अगले 15 दिनों में जाँच करके नई जाँच रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहकर विजिलेंस क्लियरेंस वापस ले लिए जाने तथा मार्च 2010 को आरटीआई में दिए गए जवाब में सीवीसी द्वारा सम्बंधित मामलों में जाँच पेंडिंग होने की जानकारी दिए जाने, नियमानुसार प्रापर विजिलेंस क्लियरेंस के बिना नियुक्ति प्रस्ताव में सम्बंधित अधिकारी का नाम भी नहीं डाले जा सकने की प्रक्रिया आदि-आदि तमाम महत्वपूर्ण तथ्यों को भी कोर्ट ने अपने संज्ञान में लेना जरूरी नहीं समझा. यह सीधा-सीधा तिकड़मबाजी और रेलवे बोर्ड के बाबुओं एवं राजनीतिज्ञों के भ्रष्ट गठजोड़ का साफ़-साफ़ मामला था, इसके अलावा यह मामला पी. जे. थामस की सीवीसी पद पर हुई विवादास्पद नियुक्ति के समकक्ष का मामला भी था, जिससे केंद्र सरकार और खुद प्रधानमंत्री एक बार फिर से विवादों में घिर सकते थे. तथापि दुर्भाग्यवश माननीय न्यायाधीशों ने इन तमाम अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्यों पर समुचित संज्ञान न लेकर इस भ्रष्ट व्यवस्था को सुधारना जरूरी नहीं समझा, यह इस मामले का अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है.
दो नवम्बर की तारीख के दिन कोर्ट के सामने रेलवे बोर्ड के वकील जिस तरह चहक रहे थे, जबकि पिछली तीन तारीखों में कोर्ट के सामने उनकी आवाज भी नहीं निकल रही थी, बल्कि तब तो उन पर तैयारी करके न आने, पिटीशन पढ़कर न आने और रेलवे बोर्ड द्वारा उन्हें उचित फीडबैक न दिए जाने, याचिकाकर्ता द्वारा अपनी पिटीशन में पहले ही सम्बंधित अधिकारी के 30 जून को रिटायर हो जाने की बात लिखे जाने जैसी कोर्ट की फटकार पड़ रही थी, और इसके साथ मामला बोर्ड पर आते ही पीठ का जो रवैया नजर आया, वह कुछ और ही तरफ इशारा करता है. मगर यही तो इस देश और इसकी संपूर्ण व्यवस्था की मज़बूरी है कि जहाँ वास्तव में गंभीरतापूर्वक ध्यान दिए जाने की जरूरत है, वहीँ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. इस गंभीर एवं तथ्यपूर्ण मामले को जिस तरह से कोर्ट द्वारा ख़ारिज किया गया है, उससे रेलवे के लाखों अधिकारियों और कर्मचारियों को घोर निराशा हुई है. इसके अलावा उस दिन रेलवे बोर्ड के वकीलों ने जिस तरह याचिकाकर्ता का चरित्र हनन करने की कोशिश की, वह एक बार फिर विवेक सहाय की कुत्सित एवं घृणित मानसिकता का द्योतक बन गई. हमें बखूबी मालूम है कि मुंबई की एक 'मोटी और चरित्रहीन' मगर तथाकथित अंग्रेजीदां महिला पत्रकार के माध्यम से माटुंगा वर्कशाप के एक लबलबहे एसएसई से एक पेपर कटिंग मंगवाकर विवेक सहाय ने रेलवे बोर्ड के वकीलों को उसे याचिकाकर्ता के खिलाफ 'मजबूत सबूत' के तौर पर दिया था, जिसका हवाला वे कोर्ट में दे रहे थे. हालाँकि कोर्ट ने उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया, मगर यदि कोर्ट ने ध्यान दिया भी होता, तो भी विवेक सहाय और रेलवे बोर्ड के वकील याचिकाकर्ता के खिलाफ कुछ भी साबित नहीं कर पाते. बहरहाल, पीएमओ, डीओपीटी और सीवीसी तथा महातिकड़मी विवेक सहाय के सामने याचिकाकर्ता की हैसियत नगण्य है, मगर फिर भी इस याचिका के कारण सर्वप्रथम विवेक सहाय को सेवा विस्तार नहीं मिल पाया और तत्पश्चात सेवानिवृत्ति के पहले और बाद में भी उन्हें कहीं कोई ठिकाना नहीं मिला, यह एक संतोष की बात है. तथापि जिस तरह इस गंभीर एवं तथ्यपूर्ण याचिका को ख़ारिज किया या कराया गया है, उसे ध्यान में रखते हुए इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की तैयारी की जा रही है.
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