हाल ही में एक मामले की सुनवाई के दौरान मुंबई हाई कोर्ट ने रेलवे प्रोटेक्शन फ़ोर्स (आरपीएफ) के सम्बन्ध में "रेलवे डिसत्रक्तिव फ़ोर्स" (Railway Distructive Force) जैसी एक भ्रामक टिप्पणी की है, जिससे करीब 70 हजार जवानों की यह फ़ोर्स काफी उद्वेलित है. उनमें और उनके प्रशासनिक अधिकारियों में इस टिप्पणी पर हाई कोर्ट के प्रति न सिर्फ काफी आक्रोश व्याप्त हुआ है, बल्कि वह इससे काफी हतोत्साहित और अपमानित भी महसूस कर रहे हैं. हाई कोर्ट की इस टिप्पणी से जहाँ एक ओर इस मामले में लिप्त रहे लोग यह सोचकर खुश हो रहे हैं कि सिर्फ वही ऐसे नहीं हैं, बल्कि सभी उन्हीं की तरह हैं, क्योंकि उक्त टिप्पणी सभी के बारे में की गई है. इससे मामले में लिप्त रहे लोगों का नहीं, बल्कि पूरी फ़ोर्स का सिर नीचा हुआ है. यदि हाई कोर्ट ने स्पष्ट रूप से अपनी यह टिप्पणी सिर्फ मामले में लिप्त रहे लोगों तक सीमित की होती, तो सिर्फ वही लोग हतोत्साहित हुए होते और दूसरों के सामने उनका ही सिर नीचा हुआ होता. बाकी लोगों को अपमानित महसूस नहीं करना पड़ता. तथापि उद्वेलित और हतोत्साहित आरपीएफ जवानों को आरपीएफ एसोसिएशन के प्रबुद्ध नेतृत्व ने यह कहकर समझाया कि हाई कोर्ट ने यह टिप्पणी पूरी फ़ोर्स के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि मामले से सम्बंधित उन कुछ लोगों के खिलाफ की है, जो मामले में कहीं न कहीं लिप्त रहे हैं, तब जाकर आरपीएफ के जवान शांत हुए और उनको कुछ राहत महसूस हुई है..
मुंबई हाई कोर्ट ने उक्त टिप्पणी कुर्ला स्टेशन पर फर्जी बेल बांड (जमानत पत्र) कांड पर दायर एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान की है. हाई कोर्ट द्वारा की गई यह टिप्पणी निश्चित रूप से न सिर्फ भ्रामक है, बल्कि जनसामान्य में इससे एक गलत सन्देश भी जाएगा. हालाँकि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट और कुछ अन्य हाई कोर्टों ने भी पुलिस आदि के बारे में ऐसी टिप्पणियां की हैं. मगर यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और तमाम जूडीसियरी को ऐसे संवेदनशील मामलों में थोड़ा संयम बरतने की जरूरत है. इस तरह की टिप्पणियां पूरी फ़ोर्स अथवा पूरे समाज के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि यदि अत्यंत आवश्यक ही हो तो, सिर्फ मामले से सम्बंधित लोगों के ही बारे में की जानी चाहिए, क्योंकि किसी गलत काम अथवा गैरकानूनी कृत्य के लिए पूरी फ़ोर्स या पूरा समाज दोषी नहीं हो सकता.
प्रस्तुत मामले में एक एनजीओ द्वारा दायर की गई याचिका पर संज्ञान लेते हुए मुंबई हाई कोर्ट ने स्वयं इस याचिका को जनहित याचिका में तब्दील किया है. परन्तु इस याचिका में उक्त एनजीओ द्वारा इस मामले से सम्बंधित तमाम वास्तविक तथ्य कोर्ट के सामने नहीं रखे गए हैं. जैसे कि इस तरह का भ्रष्टाचार अथवा गैरकानूनी कार्य किसी उच्च अधिकारी के संरक्षण के बिना नहीं हो सकता था. और प्रस्तुत मामले में यह उच्च अधिकारी था मध्य रेलवे आरपीएफ का तत्कालीन प्रमुख यानि आईजी/सीएससी/आरपीएफ/म.रे.. एनजीओ ने अपनी इस याचिका में उसे आरोपी नहीं बनाया है, जबकि उस समय म. रे. आरपीएफ में ऐसे तमाम भ्रष्टाचार और गैरकानूनी कृत्यों का प्रमुख सूत्रधार वही था, जो कि आज पदोन्नति लेकर उत्तर के एक राज्य की पुलिस का अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक बनकर बैठा हुआ है. वर्ष 2007 में हमने जब विभिन्न आरपीएफ पोस्टों से उगाही जाने वाली अवैध राशि के तमाम आंकड़े "परिपूर्ण रेलवे समाचार" में प्रकाशित किए थे, बाद में सीबीआई ने भी अपनी गहन कार्रवाई में इन तथ्यों को साबित किया है, तब इसी आईजी के इशारे पर 35 आरपीएफ इंस्पेक्टरों ने न सिर्फ क़ानूनी नोटिस भेजे थे, बल्कि इसी आईजी के दबाव में उनमे से 16 इंस्पेक्टरों ने 'परिपूर्ण रेलवे समाचार' के खिलाफ महाराष्ट्र की विभिन्न अदालतों में आरपीएफ फ़ोर्स की मानहानि करने के मामले भी दाखिल किए थे. जिनमे से कुछ अब तक चल रहे हैं और कुछ मामलों को निराधार बताकर सम्बंधित अदालतों द्वारा ख़ारिज किया जा चुका है.
कहने का तात्पर्य यह है कि बिना उच्च अधिकारियों की शह या संरक्षण के निचले स्तर पर इस तरह का कोई भ्रष्टाचार पनप नहीं सकता, क्योंकि भ्रष्टाचार पानी की ऊपर से नीचे की तरफ बहता है. अदालतों के पास पर्याप्त अधिकार हैं कि वे मामले की तह तक जाएँ, और भ्रष्टाचार के समस्त मामलों में उच्च अधिकारियों की भूमिका और जिम्मदारी को रेखांकित करें, क्योंकि बिना ऐसा किए उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टचार को रोका नहीं जा सकेगा. निचले स्तर पर इसकी जिम्मेदारी तय करके और सजा देकर समाज और प्रशासन में फैले इस 'कोढ़' को जड़ - मूल से नष्ट नहीं किया जा सकता. मीडिया (परिपूर्ण रेलवे समाचार) ने जब ऐसे उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार को उजागर किया, तो उसे गैरजरूरी क़ानूनी मामलों में उलझा दिया गया. उक्त एनजीओ ने भी शायद इसी वजह से तत्कालीन आईजी/सीएससी/आरपीएफ/म.रे. को अपनी इस याचिका में आरोपी नहीं बनाया है, क्योंकि यदि वह ऐसा करता, तो उसे भी मीडिया (परिपूर्ण रेलवे समाचार) की ही तरह विभिन्न क़ानूनी मामलों में उलझाया जा सकता था. यहाँ यह भी ध्यान देने वाली बात है कि कुर्ला स्टेशन पर चल रहे इस गैरकानूनी और फर्जी बेल बांड कांड को उक्त एनजीओ ने नहीं, बल्कि आरपीएफ के ही कुछ जवानों और आरपीएफ एसोसिएशन के पदाधिकारियों ने ही उजागर किया था, जिसके लिए गलत तरीके से इन जवानों और पदाधिकारियों को तत्कालीन आईजी द्वारा पहले अन्यत्र ट्रांसफ़र किया गया और बाद में नौकरी से भी बर्खास्त किया गया था. उक्त आईजी के लगभग जबरन रिपैट्रीएशन के बाद ही सम्बंधित एनजीओ ने इस मामले में अदालती कार्रवाई शुरू की थी. ऐसे में पूरी आरपीएफ फ़ोर्स को डिसत्रक्तिव फ़ोर्स कहना सही नहीं है.
तत्कालीन आईजी/सीएससी/आरपीएफ/म.रे. के समय ही उसकी नाक के नीचे छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (सीएसटी) पर 26/11 का सबसे पहला और बड़ा आतंकवादी हमला हुआ था, जिसमे सर्वाधिक लोग मौत के घाट उतारे गए थे, मगर यह आईजी बधवार पार्क स्थित अपने घर के बाहर चार कमांडोज को तैनात करके मीठी नींद सो रहा था. यदि वह इन चारो कमांडोज को तुरंत सीएसटी भेज देता, तो यह सीएसटी पर हमलावर मात्र दो आतंकवादियों को मिनटों में मार गिरा सकते थे. किसी अदालत ने उक्त आईजी की ड्यूटी के प्रति इस घोर लापरवाही और गैरजिम्मेदारी का संज्ञान नहीं लिया. उक्त आईजी के खिलाफ भ्रष्टाचार के तमाम आरोप साबित हुए, और चार्जशीट भी देने की तैयारी हो गई, मगर तत्कालीन डीजी/आरपीएफ ने उसे सिर्फ रिपैत्रियेत (repatriate) करके मामले को रफा - दफा कर दिया. 'परिपूर्ण रेलवे समाचार' ने इन तमाम तथ्यों को उजागर किया था.
राज्य सरकार द्वारा गठित की गई राम प्रधान कमेटी ने पूरे मुंबई शहर में अब तक के इन सबसे भयानक आतंकवादी हमलों की जांच की थी, मगर राम प्रधान कमेटी ने सीएसटी, जहाँ सबसे ज्यादा लोग आतंकवादियों की बर्बर गोलियों का शिकार हुए थे, जाकर यह देखने की भी जरूरत नहीं महसूस की थी कि मुंबई महानगर में हुआ सबसे पहला और सबसे बड़ा आतंकवादी हमला कहाँ और कैसे हुआ था? राम प्रधान कमेटी ने रेलवे परिसर (सीएसटी) को केंद्र का क्षेत्र मानकर वहां जाना जरूरी नहीं समझा, जबकि वह स्थान भी राज्य के दायरे में है और मारे गए लोग भी राज्य के ही नागरिक / रहिवासी थे. कानून - व्यवस्था बनाए रखने का अधिकार राज्य अपने दायरे में होने का दावा करते हैं, तथापि किसी कोर्ट ने इस पर कोई संज्ञान नहीं लिया?
यह माना जा सकता है कि हाई कोर्ट की उक्त टिप्पणी के पीछे उसकी मंशा जरूर वैसी ही रही होगी, जैसी कि आरपीएफ एसोसिएशन के परिपक्व नेतृत्व ने उद्वेलित आरपीएफ जवानों को समझाकर शांत किया. हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी टिप्पणियों में इतनी ही स्पष्टता बरतनी चाहिए. वरना उनकी देखा - देखी निचली अदालतें भी इस प्रकार का गैरजिम्मेदाराना आचरण कर सकती हैं. विगत में यह देखने में आया है कि जूडीसियरी भी कदाचार से मुक्त नहीं है. यहाँ तक कि उच्च जूडीसियरी पर भी इस तरह के आरोप लगते रहे हैं. और आज भी भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ इसी प्रकार के कदाचार की जांच चल रही है. जबकि इससे पहले कुछ न्यायाधीशों के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाया जा चुका है. इनमे से कुछ ने इस प्रकार के प्रस्ताव पर बहस से पहले अपना इस्तीफा देकर संसद और जूडीसियरी की गरिमा को बचाया, तो कुछ ने उसे तार-तार भी किया है. परन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि देश की पूरी जूडीसियरी ही भ्रष्ट या कदाचारी है.
इसी प्रकार राज्यों की पुलिस का हर पुलिसवाला भ्रष्ट या कदाचारी नहीं है, कुछ पुलिसवाले ऐसे अवश्य हो सकते हैं, मगर उन कुछ पुलिसवालों के कदाचार या भ्रष्टाचार अथवा गलत आचरण के लिए पूरी पुलिस फ़ोर्स को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. कभी जस्टिस श्रीकृष्ण अय्यर ने टिप्पणी की थी कि खाकी वर्दी में पुलिस वाले डकैत हैं, तो क्या माननीय पूर्व न्यायाधीश की इस टिप्पणी से सभी पुलिस वाले सदाचारी हो गए ? ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि इसका कारण यह है कि पुलिस के उच्चाधिकारियों का ऐसी टिप्पणियों से कुछ नहीं बनता - बिगड़ता. जबकि सारा दुराचार उनके कहने या इशारे पर ही होता है.
आरपीएफ के सन्दर्भ में यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि यह देश कि सर्वसामान्य जनता के सर्वाधिक संपर्क में आने वाली फ़ोर्स है और ट्रेनों में चलने वाले प्रतिदिन दो - सवा दो करोड़ यात्रियों के संपर्क में आने से मात्र दो महीनो में यह देश की सवा सौ करोड़ आबादी के संपर्क में आ जाती है. देश की ऐसी अन्य कोई फ़ोर्स नहीं है जो इस कदर जनसामान्य के सीधे संपर्क में आती हो. ऐसे में यात्रियों की सुरक्षा में रात - दिन चलती गाड़ियों में लगे रहने वाले आरपीएफ जवानों को तब गुस्सा आ सकता है अथवा यात्रियों और आरपीएफ कर्मियों के बीच मारामारी या गोलीबारी की नौबत भी आ सकती है, जब कोई यात्री या यात्रियों का समूह आरपीएफ जवानों को हाई कोर्ट की उक्त टिप्पणी का हवाला देते हुए चिढ़ा रहा होगा.. जहाँ तक सेना का सन्दर्भ है, जिसके बारे में आजकल बहुत कुछ दुष्प्रचार हो रहा है. वह चाहे सेनाध्यक्ष की अति-महत्वाकांक्षा या उनकी निहित्स्वार्थपरता हो, अथवा हथियार आपूर्ति लाबी के कारण हो, मगर गलत कारणों से आजकल सेना और सेनाध्यक्ष दोनों चर्चा में हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि वह भ्रष्ट हैं या पूरी सेना और पुलिस कदाचारी हो गई है, यदि ऐसा हो गया, तो देश की सुरक्षा और तमाम प्रशासन ही चौपट हो जाएगा तथा पूरा लोकतंत्र ही खतरे में पड़ जाएगा.
किसी समाज का कोई एक व्यक्ति कदाचारी, भ्रष्ट या हत्यारा - बलात्कारी हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि वह पूरा समाज ही ऐसा है, जिसके लिए उस पूरे समाज के खिलाफ कोई गलत टिप्पणी की जाए या उसे दोषी ठहराया जाए. मीडिया में भी बहुत से गलत या भ्रष्ट लोग हो सकते हैं, और हैं भी, मगर यह कहा जाए कि पूरा मीडिया ही भ्रष्ट हो गया है, तो यह कतई उचित नहीं होगा. यही विवाद आजकल माननीय सांसदों को लेकर भी पूरे देश में चल रहा है, इसका मतलब यह नहीं है कि राजनीति में सारे लोग ही ख़राब या भ्रष्ट हैं.. यदि ऐसा होता, तो क्या यह संसदीय लोकतंत्र इन 66 सालों तक भी टिका रह पाता? मगर 'अति सर्वत्र वर्जयेत' की तर्ज पर यह जरूर कहा जा सकता है कि अब लोकतंत्र के इन चारों स्तंभों के गरिमामय आचरण में काफी गिरावट आ गई है, और समय रहते अगर इन चारों स्तंभों ने अपनी - अपनी गरिमा को पुनर्स्थापित नहीं किया, तो वह दिन भी दूर नहीं है, जब यह तमाम व्यवस्था इनके अपने ही आचरण से डगमगाने लगेगी.
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