रेलवे को भी है एक 'अन्ना' की जरूरत..
भारतीय रेल का कामकाज पिछले करीब तीन वर्षों से जिस तरह चल रहा है, उससे भा. रे. गर्त में जा रही है. पूर्व रेलमंत्री ममता बनर्जी ने कोलकाता में बैठकर पूरे दो साल तक जिस तरह भा. रे. को हांका, उनके ही सिपहसालार वर्तमान रेलमंत्री उससे भी ज्यादा ख़राब स्थिति में इसे हांकते नजर आ रहे हैं. लगभग दो महीने के कार्यकाल में वह इसका एक चौथाई समय भी अबतक रेल भवन में नहीं बैठे हैं. उनका भी ज्यादातर समय उनकी पार्टी सुप्रीमो की ही तरह कोलकाता में बीत रहा है. ऐसा लगता है कि आज भी ममता बनर्जी ही रेलवे को हांक रही हैं, क्योंकि जिस तरह वर्तमान रेलमंत्री शाम को कोलकाता जाकर सुबह दिल्ली लौटते हैं, उससे तो यही लगता है कि वह उनसे पूछ-पूछकर अपना काम कर रहे हैं. सीआरबी की नियुक्ति में बुरी तरह मात खा गईं ममता बनर्जी ने जिस तरह एमएस और एमएल की नियुक्ति में पीएमओ के साथ अड़ीबाजी की और जिस तरह एक महीने से भी ज्यादा समय तक इनकी नियुक्ति को लंबित करवाया, जिस तरह एमटी की पोस्टिंग को लटकाया हुआ है तथा 11 जोनल महाप्रबंधकों की पोस्टिंग को लेकर जिस तरह सौदेबाजी की जा रही है, उससे भी यही संकेत मिलता है कि आज भी रेल मंत्रालय को ममता बनर्जी ही चला रही हैं. वर्तमान रेलमंत्री को बहुत काबिल और उच्च शिक्षित बताया जाता है, परन्तु उनको अबतक यही पता नहीं है कि रेलवे में उन्हें करना क्या है? पदभार सँभालते ही उन्होंने अपनी पार्टी लाइन को दोहरा दिया कि रेल किराया नहीं बढाया जाएगा, भले इस 'दुर्नीति' से रेलवे का पूरा भट्ठा बैठ जाए, उनकी बाला से..?
पदभार सँभालते ही रेलमंत्री ने यह भी कहा था कि रेलवे के विकास और चालू रेल परियोजनाओं के वित्त-पोषण की व्यवस्था आतंरिक स्रोतों से की जाएगी. यही रट लगाते-लगाते तो करीब तीन साल बीत गए हैं, मगर 'विजन 2020' के लिए जरूरी लगभग डेढ़ लाख करोड़ रु. में से अबतक डेढ़ लाख रु. की भी व्यवस्था नहीं हो पाई है. इसी तरह बाकी समय भी बीत जाएगा और मंत्री एवं सरकार से हटकर सब कुछ भुला दिया जाएगा. जिस तरह ममता बनर्जी का सारा ध्यान कोलकाता और पश्चिम बंगाल की तरफ था, ठीक उसी तरह उनके सिपहसालार रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी का भी है. जहाँ ममता बनर्जी को ज्यादा से ज्यादा रेल परियोजनाएं घोषित करके और रेलवे के असीमित संसाधनों का अधिक से अधिक दोहन करके पश्चिम बंगाल की सत्ता हथियानी थी, वहीँ अब दिनेश त्रिवेदी को उन सभी का ध्यान रखने के लिए रेल मंत्रालय सौंपा गया है. यही वजह है कि पू. रे., द. पू. रे., एन. एफ. रे. और मेट्रो रेलवे, कोलकाता को छोड़कर बाकी अन्य रेलों के पास अपनी छोटी-छोटी परियोजनाएं पूरी करने और काम करवा लेने के बाद भी लम्बे समय से ठेकेदारों को भुगतान करने के लिए फंड नहीं है, जिससे न सिर्फ तमाम परिसंपत्तियों को बदलने का, बल्कि रोजमर्रा का मरम्मत का भी काम बुरी तरह प्रभावित हुआ है. इसी के परिणामस्वरूप आए दिन कहीं न कहीं गाड़ियाँ लुढ़क रही हैं.
वर्तमान में भा. रे. में भ्रष्टाचार का चौतरफा बोलबाला है, क्योंकि जब कोई 'मुखिया' अथवा देखने वाला ही न हो, तो कौन किसको लुटने और लूटने से रोके? ऐसे में स्थिति यह दिखाई दे रही कि जितना मंत्री लूट रहा है, उससे कहीं ज्यादा भा. रे. को संत्री लूट रहे हैं. चूँकि इस लूट में मंत्री और संत्री दोनों बराबर के भागीदार हैं, इसलिए आयरन ओर लूट की जांच कोई नहीं कर रहा है. इसीलिए किसी और के उंगली उठाने पर एक कंपनी पर 660 करोड़ रु. से ज्यादा का जुर्माना लगाकर मामले को पुनः सौदेबाजी के लिए खुला छोड़ा गया है. इसीलिए किसी संत्री को इसके लिए अबतक जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है. रेलवे बोर्ड में नौकरशाहों की आपसी टांग खिंचाई चरम पर है. इस मामले में स्थिति यह हो गई है कि रेलवे का प्रत्येक नौकरशाह राजनीतिक संरक्षण और शरण खोजता फिर रहा है.
भा. रे. भी अब इंडियन एयर लाइंस और एयर इंडिया की राह पर चल पड़ी है. जिसे पिछले वित्त वर्ष 2010-11 में यात्री आय में करीब 20 हज़ार करोड़ रु. का नुकसान हुआ हुआ है. यदि स्थिति यही रही तो चालू वित्त वर्ष 2011-12 में यह घाटा बढ़कर 25 से 30 हज़ार करोड़ रु. तक पहुँच जाने का अनुमान लगाया जा रहा है. कहीं इसके पीछे भा. रे. को जानबूझकर बीमार बनाने कि राजनीतिक और नौकरशाही साजिश या रणनीति तो नहीं है? यदि ऐसा नहीं है, तो करीब डेढ़ साल से खाली पड़ी मेम्बर ट्रैफिक की पोस्ट को समाप्त क्यों नहीं कर दिया जाता, जो कि संपूर्ण रेल परिचालन और अर्निंग से जुड़ी एक अत्यंत महत्वपूर्ण पोस्ट है? क्यों इसका दोहरा चार्ज पूर्व और वर्तमान सीआरबी को सौंपकर एक तरफ मितव्ययिता का नाटक खेला जा रहा है, तो दूसरी तरफ रेलवे को जमकर चूना लगाया जा रहा है?
एक तरफ सीनियर एडमिनिस्ट्रेटिव ग्रेड (एसएजी) स्तर पर रेलवे की आठों संगठित सेवाओं में 140 से ज्यादा सरप्लस अधिकारियों को फर्जी ट्रेनिंग के बहाने घर बैठाकर प्रतिमाह करोड़ों रु. के वेतन-भत्ते मुफ्त में बांटे जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ सितम्बर के बाद सैकड़ों वर्कचार्ज पोस्टों का एक्सटेंशन न मिलने और एडहाक प्रमोशन रुक जाने की खतरनाक स्थिति पैदा होने जा रही है. जबकि कई हाई पावर कमेटियों और सैकड़ों राजनीतिक नियुक्तियों को बिना किसी फलदाई निष्कर्ष के करोड़ों रु. का भुगतान प्रतिमाह किया जा रहा है. यह शायद पहली बार है, जब ऐसी सैकड़ों राजनीतिक नियुक्तियों में उन्हें पचासों हज़ार रु. प्रतिमाह प्रति व्यक्ति मानधन दिए जाने कि व्यवस्था करके सरकारी राजस्व की लूट व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के जरिए की जा रही है?
इस सबके बावजूद 10 जोनल रेलों और उत्पादन इकाइयों के महाप्रबंधकों की पोस्टें महीनों से खाली पड़ी हुई हैं, और इस स्तर के कई अधिकारियों का कैरियर तबाह कर दिया गया है. बोर्ड में करीब डेढ़ साल से एमटी कि पोस्ट नहीं भरी गई है, जिसका खामियाजा हजारों करोड़ रु. के रेल राजस्व के नुकसान के रूप में आज सबके सामने है. इसके अलावा 30 जून से लगभग 20 मंडल रेल प्रबंधकों (डीआरएम) की पोस्टिंग ओवर ड्यू हो चुकी है. इतने ही डीआरएम कार्यकाल ख़त्म होने पर अपनी नई पोस्टिंग को लेकर भारी उहापोह में है. इस स्थिति के चलते सभी जोनल रेलों का प्रशासनिक कामकाज बुरी तरह प्रभावित हो रहा है. परन्तु रेलवे के 'मुखिया' को जब अपने शेयर दलालों से ही बात करने से फुर्सत नहीं मिल रही है, तो वह इन विभागीय महत्वपूर्ण कार्यों की तरफ ध्यान कैसे देगा? परिणामस्वरूप रेलवे में चौतरफा भ्रष्टाचार और लापरवाही का आलम है. ऐसे में रेलवे का सतर्कता संगठन भी दिग्भ्रमित अवस्था में है. वह सिर्फ मंत्री और संत्री की एडवाइस पर ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ रेल अधिकारियों की टांग खींचने और उनका कैरियर बरबाद करने के दिशा-निर्देशों पर ही अमल कर रहा है.
उपरोक्त तमाम परिस्थितियों के मद्देनजर देश की इस सबसे सस्ती और सर्वसुलभ परिवहन सेवा को यदि बचाना है, तो भा. रे. को एक 'अन्ना हजारे' की अत्यंत आवश्यकता है..!!