Friday, October 28, 2011


मगर शर्म उन्हें नहीं आती...

आईआरपीओएफ के महासचिव को इस्तीफा दे देना चाहिए.. 

मुंबई : 16 अक्तूबर की शाम को हुई एक मामूली घटना को तिल का ताड़ बनाकर पू. म. रे. के कार्मिक अधिकारियों ने कर्मचारियों के तथाकथित हंगामे को मोहरा बनाकर इंडियन रेलवे प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन (आईआरपीओएफ) के वित्त सचिव और पू. म. रे. प्रमोटी आफिसर्स एसोसिएशन (ईसीआरपीओए) के महासचिव सीनियर एएफए श्री शशिरंजन को निलंबित करा दिया था. पता चला है कि शुक्रवार, 28 अक्तूबर को उनका निलंबन ख़त्म कर दिया गया है. मगर बताते हैं कि सिर्फ निलंबन ही ख़त्म हुआ है, मामला ख़त्म नहीं हुआ है. इसके बाद उन्हें मेज़र या माइनर पेनाल्टी चार्जशीट देकर उनके खिलाफ डीएआर की कार्रवाई शुरू की जाएगी. तथापि इसके लिए आईआरपीओएफ के महासचिव श्री जीतेन्द्र सिंह ने अपने सभी जोनल पदाधिकारियों और अन्य प्रमोटी अधिकारियों को एक मोबाइल सन्देश भेजकर श्री शशिरंजन का निलंबन ख़त्म करवाने में सहयोग देने के लिए आल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन (एआईआरएफ) और पू. म. रे. कर्मचारी यूनियन (ईसीआरकेयू) के महासचिव को धन्यवाद् दिया है. 

हालाँकि इसमें कोई बुराई नहीं है, मगर यह 'धन्यवाद्' देने में क्या उन्हें शर्म नहीं आई? यह पूछना है भारतीय रेल के तमाम प्रमोटी अधिकारियों का. उनका कहना है कि जब प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन और जोनल प्रमोटी आफिसर्स एसोसिएशन के एक महत्वपूर्ण पदाधिकारी को इस घटिया तरीके से निलंबित किया जा सकता है, और दोनों अधिकारी संगठन इसमें कुछ नहीं कर पाते हैं, तो सर्वसामान्य प्रमोटी अधिकारी की क्या हैसियत रह गई है? उनका यह भी कहना है कि अब अगर अधिकारियों के अकारण निलंबन को भी ख़त्म करवाने के लिए प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन और जोनल प्रमोटी आफिसर्स एसोसिएशने, कर्मचारी संगठनों की मोहताज़ होंगी और उनकी चिरौरी करेंगी, तो यह भविष्य के लिए न सिर्फ एक गलत उदाहरण बनेगा, बल्कि इससे बेहतर तो यह होगा कि प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन और जोनल प्रमोटी आफिसर्स एसोसिएशनो को ही ख़त्म कर दिया जाना चाहिए और इन्हें पूर्व की भांति कर्मचारी संगठनों का ही सदस्य बने रहने देना चाहिए, क्योंकि जब यह अपने मामले खुद सुलझाने के लायक नहीं हैं और आज भी इनके मामूली झगड़े कर्मचारी संगठनों को ही आकर सुलझाना पड़ता है, तो इन्हें अलग से अधिकारी संगठन बनाने की मान्यता और इसकी तमाम सुविधाएं क्यों दी जानी चाहिए? 

इसके अलावा उनका यह भी कहना है कि इस उदाहरण से भविष्य में कर्मचारियों में एक गलत सन्देश जाएगा और वह अब ज्यादा उद्दंड होंगे, उनसे कोई काम लेना पहले की अप्पेक्षा अब अधिकारियों के लिए काफी मुश्किल हो जाएगा. जबकि आज भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं, क्योंकि कर्मचारी संगठनों के कुछ भ्रष्ट पदाधिकारी आज भी अपने उलटे-सीधे काम करवाने के लिए अधिकारियों को ब्लैकमेल करते हैं. चूँकि कुछ अधिकारी भी ऐसे हैं जो गलत कामों में लिप्त हैं, इसलिए सिर्फ किसी एक पक्ष को दोषी ठहराना उचित नहीं होगा, मगर श्री शशिरंजन के मामले में प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन का रवैया अत्यंत शर्मनाक रहा है. इस मामले में अगर श्री शशिरंजन दोषी हैं, तो दूसरा पक्ष भी उतना ही दोषी है. उसे क्यों नहीं दोषी ठहराया गया? उसे भी क्यों नहीं निलंबित किया गया? एकतरफा कदम उठाने से पहले घटना की फैक्ट फाइंडिंग क्यों नहीं करवाई गई? एक तरफ बिना कोई प्राथमिक जांच के श्री शशिरंजन को निलंबित किया गया और अब उनके खिलाफ डीएआर की कार्रवाई भी की जाएगी. जबकि दूसरे पक्ष के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं है. यह कहाँ तक न्यायसंगत है?

जोनल कर्मचारी संगठन ने घुमा-फिराकर ही सही, मगर यह स्वीकार किया है कि श्री शशिरंजन के निलंबन की मांग उसने की थी और अब उनके निलंबन को ख़त्म करवाने में भी उसने अपना कथित सहयोग दिया है. इसके बावजूद श्री शशिरंजन का निलंबन ख़त्म होने में पूरे 12 दिन लग गए? फिर भी परिणाम ढ़ाक के तीन पात वाला ही है, यानि डीएआर कार्रवाई होगी. तो इसमें नया क्या है? निलंबन को तो वैसे भी एक दिन प्रशासन को ख़त्म करना ही पड़ता. उसे अनिश्चित काल तक तो चलाया नहीं जा सकता था. इसमें प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन और कर्मचारी संगठन को किस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए? यदि कोई श्रेय किसी को है, तो वह रेल प्रशासन को है. तथापि जिन्होंने हमें थोड़ा सा भी कोई सहयोग किया है, उन्हें धन्यवाद् देना, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाना हमारी संस्कृति है, मगर इसकी आड़ में अपनी पीठ थपथपाना एक बेशर्म और चालाकी भरी कोशिश भी है. 

प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन के महासचिव को ऐसी किसी कोशिश से बचना चाहिए था, जो कि नेताओं की तरह दिन भर में 100 बातों में से 90 बातें झूठ बोलते हैं. आज उनकी इस 'खूबी' से भारतीय रेल के सभी प्रमोटी अधिकारी 'बखूबी' वाकिफ हो गए हैं. वह अक्सर कहते या डींग मारते हुए सुने जा सकते हैं कि वह बोर्ड के साथ झगड़ा करके कोई काम करवाने में विश्वास नहीं करते, तो इसका क्या यह मतलब निकाला जाना चाहिए कि क्या वह इस स्थिति में हैं कि वह बोर्ड के साथ कोई झगड़ा भी कर सकते हैं? बल्कि उन्हें यह समझने की जरूरत है कि चापलूसी करने से किसी को अपना अधिकार कभी हासिल नहीं होता. उन्होंने अपनी ऐसी ही कार्यप्रणाली से प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन की सारी गरिमा को न सिर्फ ख़त्म कर दिया है, बल्कि उनकी इसी कार्यप्रणाली के कारण तमाम प्रमोटी अधिकारियों का मोह भी फेडरेशन से भंग हो गया है. यह एक सच्चाई है, और श्री शशिरंजन के मामले को गरिमापूर्ण तरीके से हल न करवा पाने के लिए उन्हें अब प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन के महासचिव पद से तुरंत इस्तीफा दे देना चाहिए, यह न सिर्फ समय की मांग है, बल्कि भारतीय रेल के सभी प्रमोटी अधिकारी भी अब अपने आत्म-सम्मान को बचाए रखने के लिए यही चाहते हैं. 

Tuesday, October 4, 2011


China Bullet Trains Trip on Technology 



What India can learn from China's mistakes in signaling and lightning situations? May be we should get best ideas and bring it to the attention of Railway Board of Indian Railways. This The Wall Street Journal's front page article shows the pitfalls of China's foray in high speed railways, their local engineers couldn't fully understand the components, because of lack of knowledge, lack of training and how to test the signaling systems..  

1.  Lightning continues to affect black box or switches box. As a result train services are disrupted for hours together. What back up mechanism can Indian Railway consider? Of course solutions exists. 

2. Signaling designs are complex. According to people inside Indian Railways, Testing, Verification and Validation are still done manually in Indian Railways. Average person in the signaling deptt. has no clue how to interpret the design and test the interlocking applications. Any suggestions what formal signal design and V&V tools can Indian railways use? 

Chairman Railway Board and Member Electrical should not play with the lives of the innocent Indian passengers. This is the best time to do audit of signaling systems, monitor the performance of  vendors like Ansaldo, GE  and rectify the situation. It is surprising why Minister for Railways and Chairman Railway Board are not taking immediate steps to set things right? Are we waiting for the next  failure to happen? 

SHANGHAI : China celebrated its bullet trains as the home-grown pride of a nation: a rail system faster and more advanced than any other, showcasing superior Chinese technology. However, China's high-speed rail network was in fact built with imported components—including signaling-system parts designed to prevent train collisions—that local engineers couldn't fully understand, according to a review of corporate documents and interviews with more than a dozen rail executives inside and outside China.During a late July lightning storm, two of China's bullet trains collided in the eastern city of Wenzhou, killing 40 people and injuring nearly 200 in one of the world's worst high-speed passenger-rail accidents. China's government initially blamed flawed signaling and human error. It recently postponed public release of its crash findings.
 Take a look at how Hollysys Automation Technologies Ltd. became a key contractor for China's high-speed, rail-signaling system. 

The precise cause of the disaster remains uncertain, so there is no way to know what role, if any, the signaling assembly may have played. 
An examination of China's use of foreign technology in its bullet-train signal systems highlights deep international distrust over China's industrial model, including weak intellectual-property protections, which can complicate efforts to acquire state-of-the-art technology.
Key signaling systems were assembled by Beijing-based Hollysys Automation Technologies Ltd., one of the few companies China's Ministry of Railways tapped to handle such work. In some cases of the signal systems it supplied, technology branded as proprietary to Hollysys contained circuitry tailor-made by Hitachi Ltd. of Japan to Hollysys specifications, according to people familiar with the situation.
The problem, these people say, is that Hitachi—fearful that Chinese technicians might reverse-engineer and steal the technology—sold components with the inner workings concealed from Hollysys. Hitachi executives say this "black box" design makes gear harder to copy, and also harder to understand, for instance during testing. 
"It's still generally a mystery how a company like Hollysys could integrate our equipment into a broader safety-signaling system without intimate knowledge of our know-how," a senior Hitachi executive said.
A rail signaling system is a complex assemblage of dozens of devices, circuits and software that helps train drivers and dispatchers keep everything running safely. As trains pass beacons along a route, known as "balise modules," information about location and speed are fed into the train-control network. According to Hollysys statements, it supplied key parts of the system including the onboard brain, the Automatic Train Protection, or ATP. Hitachi supplied Hollysys with a primary part of the ATP, according to Hitachi executives.
Hollysys didn't respond to requests for comment. Two days after the crash in July, Hollysys issued a statement confirming its ATP components were installed on both trains. Hollysys said its components "functioned normally and well."
A separate state-owned Chinese signaling company, which also works with foreign firms and supplies most of the gear to bullet-train projects, issued a statement around the same time expressing "sorrow" and pledging to accept its responsibility.
China's high-speed railway, budgeted at close to $300 billion, already challenges the travel time of jetliners between cities like Beijing and Shanghai, which are roughly as far apart as Philadelphia and Atlanta. The trains, with advertised cruising speeds on the fastest lines topping 215 miles per hour, are said to "fly on land," demonstrating a future where China is a recognized peer of the U.S., EU and Japan in big-ticket ingenuity. China is designing airliners to compete with Boeing Co. and nuclear reactors to challenge Toshiba Corp.'s Westinghouse Electric Co. It already exports high-speed rail equipment: This month it reached a deal to supply locomotives to the nation of Georgia.
In less than seven years, China has built a bullet-train network larger than the ones Japan and Germany took decades to construct. China is only about halfway through a 15-year plan to build a total of nearly 10,000 miles of high-speed track connecting 24 major cities.
"We aim at the world's top-notch technologies," then-Railways Minister Liu Zhijun declared four years ago. A few months before the July crash, Mr. Liu was fired after China's Communist Party accused him and other top officials of unspecified corruption. Mr. Liu couldn't be located for comment.
July's rail tragedy—in which two bullet trains collided during a storm, sending some cars plunging 65 feet from elevated tracks—is tarnishing China's effort to portray the project as technologically advanced and safety-minded. Among other things, the Ministry of Railways chose not to install lightning rods and surge protectors on some high-speed rail lines even as an industry association recommended doing so on major infrastructure projects, He Jinliang, director of China's National Lightning Protection Technology Standard Committee, said in July.
The Ministry of Railways didn't respond to requests for comment. Through state media and on its website, the ministry has stressed its attention to safety. A Sept. 5 statement said, "Our cadres should be leading the work, changing their style, going to the grass-roots level and trying to solve problems."
Last week, Chinese authorities reiterated their safety pledge after two subway trains in collided in Shanghai, injuring more than 280 people, in an accident blamed on errors after a power snafu knocked out signals, according to the subway operator. 
From the initial days of the high-speed railway program, Beijing turned to local firms, including Hollysys, rather than foreign expertise. Hollysys says it is one of just two companies eligible to supply certain signaling technology for China's fastest trains. Ministry of Railways rules effectively forbid foreign companies from bidding.
At 8:37 p.m., Train No. D301 rammed into the back of No. D3115, which was nearly stationary on the tracks, in Wenzhou. The accident killed 40 people and injured at least 190. The impact sent four carriages plunging 65 feet off the elevated rail line. 

Though new to high-speed rail, Hollysys became a central supplier of the signaling systems, circuits and software that are supposed to prevent the kind of accident that happened near Wenzhou by automatically stopping trains if trouble is detected.
Integrating signaling components is a challenge, particularly at the pace that China was expanding its rail network, train executives say. "The problem is to put all these pieces of the puzzle into a coherent system," says Marc Antoni, technological innovation director at SNCF, the French national railway operator, which runs the high-speed TGV.
Originally part of China's Ministry of Electronics, Hollysys in the 1990s became a privately owned business focused on "controls"—the technology that keeps factory assembly lines humming smoothly. In a Hollysys timeline of its railway achievements, the company says it won its first noteworthy high-speed-rail signaling contracts in 2005, about when China began construction.
A year later, in a filing with the U.S. Securities and Exchange Commission, Hollysys played down the importance of high-speed-rail signaling by describing it as "adjacent" to core operations in industrial controls. The sector was mentioned just once in a 300-plus page SEC filing in 2006, part of a successful effort by Hollysys to list its shares on Nasdaq through a special-purpose acquisition company, or SPAC, a practice that involves adoption of a current listing by another company.
By late 2008 Beijing was speeding construction of its bullet trains in part to help power the Chinese economy through the global economic slump. Hollysys described itself in regulatory filings as one of just two companies that possessed "the capability" to supply the Ministry of Railways with signals on its fastest lines.
Hollysys became a tech darling and in September 2009 its chief financial officer, Peter Li, speaking to analysts, credited the Ministry of Railways' "very clear mandate of localizing the product." When an analyst asked whether he feared competition, Mr. Li said, "Basically, foreign players are not allowed to bid independently for high-speed-rail projects."
The Ministry of Railways awarded Hollysys more than $100 million of high-speed-signaling contracts in 2010 alone, according to company statements. For the fiscal year ended this past June, Hollysys reported total revenue of $262.84 million.
The ministry also played matchmaker for Hollysys. When a leading Italian signaling company, Ansaldo STS, sought a business foothold in China, the Ministry of Railways indicated that it should be in the form of a partnership with Hollysys, according to Ansaldo spokesman Roberto Alatri.
A $97 million contract followed in July 2008 for a Hollysys-Ansaldo consortium to design, build and maintain signal-control systems on China's then-fastest train line, a 459-kilometer section linking the central China cities of Zhengzhou and Xian. The Hollysys portion was $22 million.
Hollysys had a longer relationship with Hitachi, which supplied the Chinese company components for high-speed rail signaling starting in 2005, the year Hollysys says it got its start in the business. The main cooperation was on the onboard ATP system, which Hollysys documents describe as components in the nose and tail of trains that act as its "last line of defense in safety."
The Hitachi-made ATP components came with a catch. Two Hitachi executives familiar with the matter said the company adopts what the industry refers to as "black box" security to conceal design secrets by withholding technical blueprints known in Japanese as zumen.
Black boxes make it tough to reverse-engineer the equipment. They can also make it more difficult to troubleshoot the gear, according to executives of several companies familiar with the practice in China.
"Providing zumen means…we completely trust the buyer of our technology," a senior Hitachi executive said, with the understanding that the buyer "would not become a competitive threat in other markets."
Hitachi doesn't always withhold its design secrets. When working with companies elsewhere on a common project, the senior executive said, it will provide the zumen, or blueprints, in some cases.
Hitachi executives say the arrangement with Hollysys wasn't a technology-transfer deal—in which it would be expected to share technical details—but rather a contractual arrangement to manufacture parts to specifications provided by Hollysys. Hitachi says it did provide "limited" technical support that is typical of contracts of this type.
A spokesman at Hitachi's headquarters in Tokyo, Atsushi Konno, said the company "has no comment about Hollysys's products, as we do not have any information as to what kind of end product Hollysys developed using our devices." The official confirmed that Hitachi supplied Hollysys some equipment for the signaling systems used aboard trains and "also provided technical explanation regarding those components, and we believe Hollysys, as a result, fully understands them."
At least one installation of Hollysys components didn't go smoothly, according to one Europe-based engineer who worked on the job. An onboard Hollysys computer, part of the ATP called a driver machine interface, kept freezing, displaying old information.
Technical bugs aren't unusual when fine-tuning a train system, but the temporary fix was, according to the engineer. To avoid the embarrassment of canceling an opening ceremony, operators decided to begin passenger service on the high-speed line and assign one person in the train's cab the exclusive task of watching that the seconds continued to scroll on the computer's clock—thereby ensuring the device was functioning.
"It was a random failure that was not managed very well," the engineer said. The problem was later fixed, he said.
Dominique Pouliquen, head of Alstom SA's China operations, said China and its rail-equipment suppliers remain in the learning stages. "You acquire the technology. Then you need to absorb it; you need to master it," Mr. Pouliquen told a small group of reporters last week. For China, "I think it's all about absorption and fully mastering the whole technology that has been acquired over the last 10 years."
Alstom supplied, through a local joint venture, hardware for train dispatchers on the line where July's collision occurred. Mr. Pouliquen said the JV didn't provide any of the signaling technology that the Chinese government has said was possibly flawed.
In an August letter to shareholders, Hollysys Chief Executive Wang Changli cited the "tragic" Wenzhou accident and reiterated that Hollysys equipment wasn't to blame. China's biggest signaling company, Beijing-based China Railway Signal & Communication Corp., originated within China's railways bureaucracy. Shortly after the crash, a CRSC unit, Beijing National Railway Research & Design Institute of Signal and Communication, issued a statement of "sorrow" and pledged to "shoulder our responsibility."
CRSC hasn't commented about the accident directly, aside from a statement Aug. 23 stating that its top executive, 55-year-old Ma Cheng, collapsed and died during questioning by crash investigators. 
Courtesy : The Wall Street Journal, Asia Edition. 

परेशान रेलवे बोर्ड ने बनाया फेडरेशन को मोहरा 
आरडीएसओ को पूर्ण जोनल रेलवे का दर्ज़ा और आरडीएसओपीओए का रेलवे बोर्ड के खिलाफ अदालत की मानहानि का मुकदमा 

नयी दिल्ली : प्राप्त जानकारी के अनुसार वर्ष 2002 में 7 नई जोनल रेलवे बनाए जाने के साथ ही आरडीएसओ को भी दि. 01.10.2002 के गजट नोटिफिकेशन में दि. 01.01.2003 से एक जोनल रेलवे का दर्ज़ा घोषित किया गया था. इसके बावजूद रेलवे बोर्ड ने आजतक अपनी इस घोषणा पर वास्तविक रूप में अमल नहीं किया, जिससे आरडीएसओ के प्रमोटी अफसरों को समान पदोन्नति एवं अन्य सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा था. तमाम कोशिशों के बाद भी जब रेलवे बोर्ड ने अपनी ही घोषणा पर अमल नहीं किया और लगातार टालमटोल का रवैया अपनाया जाता रहा, तो आरडीएसओ प्रमोटी आफिसर्स एसोसिएशन (आरडीएसओपीओए) ने इस मामले को अदालत में चुनौती दे दी. अदालत का निर्णय प्रमोटी अफसरों के हक में आया, तब भी रेलवे बोर्ड के कान में जूं नहीं रेंगी और जब उसने अदालत के निर्णय पर अमल नहीं किया, तो आरडीएसओपीओए ने रेलवे बोर्ड के खिलाफ अदालत की मानहानि का मुकदमा ठोंक दिया है. 

लखनऊ हाई कोर्ट में इसकी अगली सुनवाई अगले महीने नवम्बर के मध्य में है. पता चला है कि इससे रेलवे बोर्ड बहुत परेशान हो रहा है, क्योंकि इसके चलते उसे अदालत में बुरी तरह अपनी भद्द पिटने की आशंका हो रही है. हालाँकि बताते हैं कि कोर्ट में उसने आरडीएसओ के प्रमोटी अफसरों को सब कुछ देने की बात मान ली है, परन्तु आरडीएसओ के प्रमोटी अफसरों की मांग है कि जब तक सभी संगठित सेवाओं में उनका इंडक्शन नहीं किया जाता है, तब तक सभी विभागों की डीपीसी को रोक दिया जाए. कोर्ट ने इसे दि. 01.01.2004 से लागू करने का आदेश दिया है. इसमें समय लगने का बेहद बेहयाईपूर्ण तर्क देकर रेलवे बोर्ड कोर्ट और आरडीएसओ के प्रमोटी अधिकारियों को गुमराह करना चाह रहा है. जबकि न सिर्फ पिछले 10 साल उसने टालमटोल में गवां दिए हैं, बल्कि लखनऊ हाई कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय के बाद भी उसने करीब 8 महीने का समय यही कहते हुए बिता दिया है, और अब भी और समय की मांग करके एवं भौंड़े तर्क देकर न सिर्फ अपनी खाल बचाने की घटिया कोशिश कर रहा है, बल्कि इसमें वह प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन को भी अपना मोहरा बना रहा है?

बताते हैं कि इस मामले के चलते इंडियन रेलवे प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन (आईआरपीओएफ) और आरडीएसओपीओए के बीच काफी मतभेद पैदा हो गए हैं. पता चला है कि फेडरेशन ने इस मामले में आरडीएसओपीओए की कोई मदद नहीं की है क्योंकि उस पर रेलवे बोर्ड का भारी दबाव है कि वह यदि आरडीएसओपीओए को मानहानि का मुकदमा वापस लेने के लिए बाध्य नहीं करता है, तो पोस्टों के बंटवारे में ग्रुप 'बी' को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है. प्राप्त जानकारी के अनुसार आईआरपीओएफ ने इसी आशंका के मद्देनजर आरडीएसओपीओए की फेडरेशन से संलग्नता को रद्द कर दिए जाने की चेतावनी दी है. पता चला है कि 15-16 सितम्बर को इसी मुद्दे पर विशेष रूप से दिल्ली में बुलाई गई आईआरपीओएफ की कार्यकारिणी मीटिंग (ईसीएम) में इसके साथ ही फेडरेशन के सस्पेंस एकाउंट सहित कुछ और गंभीर मुद्दों को लेकर काफी हंगामा हुआ है. 

उल्लेखनीय है कि तमाम प्रमोटी अधिकारी, आईआरपीओएफ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के कार्यकाल को बढाकर तीन साल किए जाने और फेडरेशन की कार्यप्रणाली तथा रेलवे बोर्ड की चापलूसी करने की सारी हदें पर कर दिए जाने को लेकर पहले से ही काफी आक्रोशित हैं. इसके अलावा फेडरेशन की तर्ज़ पर सभी जोनल एसोसिएशनो पर भी अपनी जोनल कार्यकारिणी का कार्यकाल बढाकर तीन साल करने का दबाव डाला जा रहा है. इससे भी तमाम जोनल पदाधिकारी सहमत न होने से फेडरेशन से नाराज हैं. यही नहीं, फेडरेशन की भेदभावपूर्ण कार्यप्रणाली से कई कैडर के अधिकारी भी फेडरेशन और जोनल एसोसिएशनो से न सिर्फ पूरी तरह कट गए हैं, बल्कि कैरियर के मामले में भी उनका भारी नुकसान हुआ है. इस सबके के परिणामस्वरुप प्रमोटी अधिकारियों में ग्रुप 'ए' और ग्रुप 'बी' का भेद भी काफी बढ़ता जा रहा है. ज्ञातव्य है कि इसी भेद को लेकर प्रमोटी अधिकारियों के एक गुट विशेष ने फेडरेशन और रेलवे बोर्ड के खिलाफ अदालत में एक मामला भी दाखिल किया हुआ है. अब देखना यह है कि रेलवे बोर्ड और प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन गले में अटकी इस फांस से कैसे निजात पाते हैं? 
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Monday, October 3, 2011


13 जीएम की पोस्टिंग का प्रस्ताव भेजा गया 

प्राप्त ताज़ा जानकारी के अनुसार 13 जीएम्स की पोस्टिंग्स का प्रस्ताव  रेलवे बोर्ड ने डीओपीटी को भेज दिया है. दो लेटरल ट्रांसफ़र के साथ इस प्रस्ताव में भेजे गए नाम इस प्रकार हैं.. 

1. श्री राजीव भार्गव, आरडब्ल्यूएफ 
2. श्री अभय खन्ना, आईसीएफ 
3. श्री बी. एन. राजशेखर, आरसीएफ 
4. श्री सुबोध कुमार जैन, म. रे. 
5. श्री अरुणेन्द्र कुमार, द. पू. म. रे. 
6. श्री महेश कुमार, प. रे. 
7. श्री ए. के. वर्मा, द. पू. रे. 
8. श्री जी. सी. अग्रवाल, पू. रे. 
9. श्री एस. वी. आर्य, प. म. रे. 
10. श्री इन्द्र घोष, पू. त. रे. 
11. श्री जगदेव कालिया, आरई/कोर 
12. श्री अरुण बर्थुआर, पू.रे. से पू.म.रे. 
13. श्री जी. एन. अस्थाना, प.म.रे. से द.म.रे. 

रेलवे बोर्ड के सूत्रों से यह भी जानकारी मिली है कि एमटी के पद पर श्री के. के. श्रीवास्तव, जीएम/पू.म.रे., का पोस्टिंग आर्डर एकाध दिन में जारी हो जाएगा. 


पीआईएल की सुनवाई अब 2 नवम्बर को 

इस मामले में क्यों नहीं लागू होगा को-वारंटो -हाई कोर्ट 

नई दिल्ली : 'रेलवे समाचार' द्वारा दिल्ली हाई कोर्ट में पूर्व सीआरबी विवेक सहाय की नियुक्ति के खिलाफ दाखिल की गई जनहित याचिका (पीआईएल) की सुनवाई अब 2 नवम्बर को होगी. 28 सितम्बर की पिछली तारीख में एक बार फिर रेलवे के वकील पूरी तैयारी के साथ नहीं आए थे और न ही सीवीसी और पीएमओ तथा डीओपीटी ने अब तक अपने जवाब कोर्ट में दाखिल किए हैं. इसलिए माननीय जजों ने वादी सुरेश त्रिपाठी के वकील श्री राजेश टिक्कू के इस पर सवाल उठाए जाने पर नाराजगी जताते हुए उन्हें अपने जवाब अगली तारीख से पहले कोर्ट में दाखिल करने और इस मामले में को-वारंटो क्यों नहीं लागू हो सकता, इस पर कोर्ट को संतुष्ट करने का आदेश रेलवे के वकीलों को दिया है. मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्र और न्यायाधीश श्री संजीव खन्ना ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के अनुसार यह मामला भी को-वारंटो, रिटायर्मेंट के बाद भी नियुक्ति ख़ारिज हो जाने, का है. इस पर रेलवे के वकील श्री वेंकटरमणी ने कहा कि यह मामला को-वारंटो का नहीं है, तब विद्वान न्यायाधीशों ने कहा कि अगली तारीख में वह कोर्ट को संतुष्ट करें और यह भी स्पष्ट करें कि इस मामले में को-वारंटो क्यों नहीं लागू हो सकता है. 

पता चला है कि श्री सहाय इस मामले के चलते काफी परेशान हैं, क्योंकि उन्हें यह कहते सुना गया है कि 'इस मामले के कारण वह रिटायर्मेंट के बाद कहीं नौकरी ज्वाइन कर पा रहे हैं.' बताने वालों ने यह भी बताया कि 'श्री सहाय चाहते हैं कि ये मामला जल्दी निपट जाए, तो वह कहीं नौकरी ज्वाइन करें और मुंबई शिफ्ट हो जाएं.' यह खबर बताने वालों का कहना था कि श्री सहाय को अब मामले की गंभीरता समझ में आ रही है, क्योंकि अब तक वह यही समझ रहे थे कि मामला एक-दो पेशी में ही निपट जाएगा. सीवीसी, पीएमओ और डीओपीटी ने भी शायद ऐसा ही मानकर अब तक अपने जवाब दाखिल नहीं किए हैं. परन्तु अब जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ रहा है, उनकी चिंता भी बढती जा रही है. बहरहाल, यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि यह कानूनी लड़ाई किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं, बल्कि सिद्धांत की लड़ाई है, और अब जब मामला अदालत के विचाराधीन है, तो वादी को पूरा भरोसा है कि अदालत से पूरा न्याय होगा. 

Sunday, October 2, 2011


'विषधर' के प्रभाव से कब मुक्त होगा रेलवे बोर्ड 

  • करीब दो साल से खाली पड़ी एमटी की पोस्ट भी अबतक नहीं भरी जा सकी है 
  • विनय मित्तल के सीआरबी बनने के तीन महीने बाद भी नहीं हो पाई हैं जीएम्स की नियुक्तियां 
  • तीसरी बार एम्पैनाल्मेंट होने के बावजूद राजीव भार्गव और अभय खन्ना को अबतक नहीं मिल पाया है न्याय 
  • फाइलें देखने और लटकाने के लिए पीएमओ और रेलवे बोर्ड के पास बहुत इफरात में है समय 
  • रेल मंत्रालय पर सतत कायम है ममता बनर्जी की काली छाया 
  • प्रधानमंत्री की तरह 'मैडम' से पूछ-पूछकर काम करने की राह पर वर्तमान रेलमंत्री 
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सुरेश त्रिपाठी 

'विषधर' को रिटायर हुए तीन महीने से ज्यादा हो चुके हैं, मगर ऐसा लगता है कि उसकी कलुषित छाया से रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) अबतक मुक्त नहीं हो पाया है. यही बात नए सीआरबी श्री विनय मित्तल के बारे में भी कही जा रही है. हालाँकि श्री मित्तल व्यक्तिगत स्तर पर चाहे जैसे हों, मगर प्रशासनिक स्तर पर उन्हें काफी मजबूत माना जाता रहा है. तथापि उनके सीआरबी बनने के तीन महीने बाद भी यदि रेलवे में प्रशासनिक स्तर पर कोई सुधार होता नजर नहीं आ रहा है, तो उनसे भी तमाम रेल अधिकारियों और कर्मचारियों की अपेक्षा भंग होती दिखाई दे रही है. जबकि राजनीतिक और रेलमंत्री स्तर पर तो रेलवे में सुधार की अब रेल अधिकारियों और कर्मचारियों को कोई उम्मीद नहीं है. ऐसे में उन्हें श्री मित्तल से काफी उम्मीदें थीं, वह भी पूरी होती नहीं लग रही हैं. 

इन रेल अधिकारियों को पूरी उम्मीद थी कि पितर पक्ष से पहले मेम्बर ट्रैफिक (एमटी) की भी पोस्टिंग हो जाएगी, मगर एसीसी को भेजी गई इसकी फाइल को फालो करने वाला ही कोई नहीं है. अब बताते हैं कि यह फाइल कैबिनेट सेक्रेटरी के पास पड़ी है, वैसे ही जैसे श्री राजीव भार्गव और श्री अभय खन्ना की फाइल उनके पास करीब दो महीने तक पड़ी रही और उसको फालो करने वाला रेलवे बोर्ड में कोई नहीं था. अब बताया जा रहा है कि शायद दसहरा के बाद ही अब एमटी की पोस्टिंग हो पाएगी. मगर हमारे सूत्रों का एक कयास यह भी है कि विषधर की भांति ही एमटी की पोस्ट को अभी कुछ दिनों तक सीआरबी के साथ ही चिपकाए रखा जाने वाला है. हालाँकि इस पोस्ट के लिए बचे अब एकमात्र उम्मीदवार श्री के. के. श्रीवास्तव का इंटरव्यू करीब महीना भर पहले ही रेलमंत्री द्वारा लिया जा चुका है. अब इस तरह के 'इंटरव्यू' का मतलब आज सभी रेल अधिकारियों और कर्मचारियों को मालूम हो चुका है कि इसमें उनके सामने क्या-क्या शर्तें रखी गई होंगी अथवा क्या करना है, क्या नहीं करना है और करना है तो किस तरह करना है, यह सब कुछ उनसे पूछा नहीं गया होगा, बल्कि उन्हें समझाया गया होगा. 

उधर प्रशासनिक स्तर पर सुदृढ़ माने जाने वाले श्री मित्तल की सीआरबी पद पर पदस्थापना के बाद यह मान लिया गया था कि अब शायद जीएम्स की पोस्टिंग जल्दी हो जाएगी, मगर  रेल अधिकारियों और कर्मचारियों की यह सामान्य अपेक्षा आज तीन महीने बाद भी खरी नहीं उतरी है. उल्लेखनीय है कि 11 जोनल जीएम्स के पद पहले से खाली पड़े हुए हैं तथा 2 पद इसी महीने और खाली होने जा रहे हैं. इनमे से द. पू. म. रे. बिलासपुर का पद दिसंबर 2010 से, प. रे. मुंबई का पद जनवरी 2011 से, इंटीग्रल कोच फैक्टरी पेराम्बुर, रेलवे वैगन फैक्टरी बंगलौर और व्हील एंड एक्सेल प्लांट के पद अप्रैल 2011 से, द. म. रे. सिकंदराबाद, रेलवे कोच फैक्टरी कपूरथला और कोर इलाहाबाद के पद मई 2011 से, द. पू. रे. कोलकाता का पद जून 2011 से और म. रे. मुंबई एवं पू. त. रे. भुवनेश्वर के पद जुलाई 2011 से खाली पड़े हुए है, जबकि श्री के. के. सक्सेना और श्री कुलदीप चतुर्वेदी के आरसीटी में चले जाने पर डीजल लोकोमोटिव वर्क्स वाराणसी तथा द. प. रे. हुबली के दो जीएम पद इसी महीने और खाली हो जाने वाले हैं. और खुदा न खास्ता यदि एमटी के पद पर श्री के. के. श्रीवास्तव की नियुक्ति शीघ्र ही हो जाती है, तो पू. म. रे. हाजीपुर के जीएम का एक पद और जल्दी ही खाली हो जाएगा. इस प्रकार कुल मिलाकर वर्तमान में 14 जीएम की नियुक्ति की जानी है. तथापि ऐसा लगता नहीं है कि रेलवे बोर्ड, पीएमओ, रेलमंत्री और सीआरबी को इसकी कोई परवाह है? इसके अलावा मुंबई रेल विकास निगम और रेल टेल कारपोरेशन तथा इंडियन रेलवे वेयर हाउसिंग कारपोरेशन के प्रबंध निदेशकों (एमडी) के महीनो से खाली पड़े पद 'विषधर' के कर्मों को रो रहे हैं. 

एसीसी और पीएमओ को भेजी जाने वाली फाइलों को देखने के लिए प्रधानमंत्री और कैबिनेट सेक्रेटरी के पास या तो बहुत सारा फ़ालतू वक़्त है, अथवा उन्हें इन फाइलों से बहुत मोहब्बत हो जाती है, शायद यही वजह है कि इन फाइलों को वह अपनी महबूबा मानकर दो-दो, चार-चार महीनों तक एकांत में रखकर उन्हें एकटक घूरते रहते हैं. जबकि रेलवे बोर्ड और रेलमंत्री को यह पोस्टिंग प्रस्ताव बनाने एवं पीएमओ को भेजने में नींद आती रहती है, शायद उनकी इस सोते रहने की वजह से ही पिछले 11 महीनों से जीएम्स की पोस्टिंग नहीं हो पाई है. अब जब श्री राजीव भार्गव को तीसरी बार और श्री अभय खन्ना को दूसरी बार जीएम पैनल में समाहित किया गया है, तब भी उन्हें जल्दी न्याय मिलता नजर नहीं आ रहा है. ऐसा रेलवे बोर्ड के हमारे विश्वसनीय सूत्रों का कहना है. सूत्रों का कहना है कि अधिकारियों को गलत बात के लिए भी सही सोचने हेतु मजबूर किया जा रहा है और चौथी बार रेलवे बोर्ड द्वारा गलत बात को सही बताकर पीएमओ को गुमराह किया जा रहा है. उनका कहना है कि रेलवे बोर्ड के इन स्वनामधन्य अधिकारियों या नीति-निर्धारकों को कब सही समझ आएगी और ये कब इस अंधकार से बाहर निकल सकेंगे? 

रेलवे बोर्ड के अधिकाँश अधिकारियों का कहना है कि जिस तरह रेलवे बोर्ड पर विषधर की कलुषित छाया अब तक कायम है, उसी प्रकार पूरे रेल मंत्रालय पर ममता बनर्जी की भी काली छाया अब तक पड़ रही है. शायद यही वजह है कि प्रत्येक उच्च स्तरीय पोस्टिंग में 'सौदेबाजी' हो रही है, क्योंकि अबतक जितनी 'कमाई' की गई थी, वह तो पश्चिम बंगाल की सत्ता हासिल करने और विधान सभा चुनाव जीतने में खर्च हो चुकी है, मगर अभी आगे इस सत्ता को टिकाए रखने का भी तो पर्याप्त बंदोबस्त करना है? इसीलिए ममता बनर्जी ने न तो रेल मंत्रालय अपनी पार्टी के हाथ से जाने दिया है, और न ही इस पर से अपनी पकड़ ढीली की है? ऐसे में यदि वर्तमान रेलमंत्री उनसे पूछ-पूछकर या उनके बताए अनुसार अथवा उनकी ही तर्ज़ पर फाइलों का निपटारा कर रहे हैं, तो इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार इस देश का प्रधानमंत्री अपनी 'मैडम' के इशारे पर उठता-बैठता, चलता-फिरता है, ठीक उसी प्रकार यदि उनका एक मंत्री भी अपनी 'मैडम' के इशारों का अनुसरण करता है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है.