Friday, October 28, 2011


मगर शर्म उन्हें नहीं आती...

आईआरपीओएफ के महासचिव को इस्तीफा दे देना चाहिए.. 

मुंबई : 16 अक्तूबर की शाम को हुई एक मामूली घटना को तिल का ताड़ बनाकर पू. म. रे. के कार्मिक अधिकारियों ने कर्मचारियों के तथाकथित हंगामे को मोहरा बनाकर इंडियन रेलवे प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन (आईआरपीओएफ) के वित्त सचिव और पू. म. रे. प्रमोटी आफिसर्स एसोसिएशन (ईसीआरपीओए) के महासचिव सीनियर एएफए श्री शशिरंजन को निलंबित करा दिया था. पता चला है कि शुक्रवार, 28 अक्तूबर को उनका निलंबन ख़त्म कर दिया गया है. मगर बताते हैं कि सिर्फ निलंबन ही ख़त्म हुआ है, मामला ख़त्म नहीं हुआ है. इसके बाद उन्हें मेज़र या माइनर पेनाल्टी चार्जशीट देकर उनके खिलाफ डीएआर की कार्रवाई शुरू की जाएगी. तथापि इसके लिए आईआरपीओएफ के महासचिव श्री जीतेन्द्र सिंह ने अपने सभी जोनल पदाधिकारियों और अन्य प्रमोटी अधिकारियों को एक मोबाइल सन्देश भेजकर श्री शशिरंजन का निलंबन ख़त्म करवाने में सहयोग देने के लिए आल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन (एआईआरएफ) और पू. म. रे. कर्मचारी यूनियन (ईसीआरकेयू) के महासचिव को धन्यवाद् दिया है. 

हालाँकि इसमें कोई बुराई नहीं है, मगर यह 'धन्यवाद्' देने में क्या उन्हें शर्म नहीं आई? यह पूछना है भारतीय रेल के तमाम प्रमोटी अधिकारियों का. उनका कहना है कि जब प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन और जोनल प्रमोटी आफिसर्स एसोसिएशन के एक महत्वपूर्ण पदाधिकारी को इस घटिया तरीके से निलंबित किया जा सकता है, और दोनों अधिकारी संगठन इसमें कुछ नहीं कर पाते हैं, तो सर्वसामान्य प्रमोटी अधिकारी की क्या हैसियत रह गई है? उनका यह भी कहना है कि अब अगर अधिकारियों के अकारण निलंबन को भी ख़त्म करवाने के लिए प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन और जोनल प्रमोटी आफिसर्स एसोसिएशने, कर्मचारी संगठनों की मोहताज़ होंगी और उनकी चिरौरी करेंगी, तो यह भविष्य के लिए न सिर्फ एक गलत उदाहरण बनेगा, बल्कि इससे बेहतर तो यह होगा कि प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन और जोनल प्रमोटी आफिसर्स एसोसिएशनो को ही ख़त्म कर दिया जाना चाहिए और इन्हें पूर्व की भांति कर्मचारी संगठनों का ही सदस्य बने रहने देना चाहिए, क्योंकि जब यह अपने मामले खुद सुलझाने के लायक नहीं हैं और आज भी इनके मामूली झगड़े कर्मचारी संगठनों को ही आकर सुलझाना पड़ता है, तो इन्हें अलग से अधिकारी संगठन बनाने की मान्यता और इसकी तमाम सुविधाएं क्यों दी जानी चाहिए? 

इसके अलावा उनका यह भी कहना है कि इस उदाहरण से भविष्य में कर्मचारियों में एक गलत सन्देश जाएगा और वह अब ज्यादा उद्दंड होंगे, उनसे कोई काम लेना पहले की अप्पेक्षा अब अधिकारियों के लिए काफी मुश्किल हो जाएगा. जबकि आज भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं, क्योंकि कर्मचारी संगठनों के कुछ भ्रष्ट पदाधिकारी आज भी अपने उलटे-सीधे काम करवाने के लिए अधिकारियों को ब्लैकमेल करते हैं. चूँकि कुछ अधिकारी भी ऐसे हैं जो गलत कामों में लिप्त हैं, इसलिए सिर्फ किसी एक पक्ष को दोषी ठहराना उचित नहीं होगा, मगर श्री शशिरंजन के मामले में प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन का रवैया अत्यंत शर्मनाक रहा है. इस मामले में अगर श्री शशिरंजन दोषी हैं, तो दूसरा पक्ष भी उतना ही दोषी है. उसे क्यों नहीं दोषी ठहराया गया? उसे भी क्यों नहीं निलंबित किया गया? एकतरफा कदम उठाने से पहले घटना की फैक्ट फाइंडिंग क्यों नहीं करवाई गई? एक तरफ बिना कोई प्राथमिक जांच के श्री शशिरंजन को निलंबित किया गया और अब उनके खिलाफ डीएआर की कार्रवाई भी की जाएगी. जबकि दूसरे पक्ष के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं है. यह कहाँ तक न्यायसंगत है?

जोनल कर्मचारी संगठन ने घुमा-फिराकर ही सही, मगर यह स्वीकार किया है कि श्री शशिरंजन के निलंबन की मांग उसने की थी और अब उनके निलंबन को ख़त्म करवाने में भी उसने अपना कथित सहयोग दिया है. इसके बावजूद श्री शशिरंजन का निलंबन ख़त्म होने में पूरे 12 दिन लग गए? फिर भी परिणाम ढ़ाक के तीन पात वाला ही है, यानि डीएआर कार्रवाई होगी. तो इसमें नया क्या है? निलंबन को तो वैसे भी एक दिन प्रशासन को ख़त्म करना ही पड़ता. उसे अनिश्चित काल तक तो चलाया नहीं जा सकता था. इसमें प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन और कर्मचारी संगठन को किस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए? यदि कोई श्रेय किसी को है, तो वह रेल प्रशासन को है. तथापि जिन्होंने हमें थोड़ा सा भी कोई सहयोग किया है, उन्हें धन्यवाद् देना, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाना हमारी संस्कृति है, मगर इसकी आड़ में अपनी पीठ थपथपाना एक बेशर्म और चालाकी भरी कोशिश भी है. 

प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन के महासचिव को ऐसी किसी कोशिश से बचना चाहिए था, जो कि नेताओं की तरह दिन भर में 100 बातों में से 90 बातें झूठ बोलते हैं. आज उनकी इस 'खूबी' से भारतीय रेल के सभी प्रमोटी अधिकारी 'बखूबी' वाकिफ हो गए हैं. वह अक्सर कहते या डींग मारते हुए सुने जा सकते हैं कि वह बोर्ड के साथ झगड़ा करके कोई काम करवाने में विश्वास नहीं करते, तो इसका क्या यह मतलब निकाला जाना चाहिए कि क्या वह इस स्थिति में हैं कि वह बोर्ड के साथ कोई झगड़ा भी कर सकते हैं? बल्कि उन्हें यह समझने की जरूरत है कि चापलूसी करने से किसी को अपना अधिकार कभी हासिल नहीं होता. उन्होंने अपनी ऐसी ही कार्यप्रणाली से प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन की सारी गरिमा को न सिर्फ ख़त्म कर दिया है, बल्कि उनकी इसी कार्यप्रणाली के कारण तमाम प्रमोटी अधिकारियों का मोह भी फेडरेशन से भंग हो गया है. यह एक सच्चाई है, और श्री शशिरंजन के मामले को गरिमापूर्ण तरीके से हल न करवा पाने के लिए उन्हें अब प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन के महासचिव पद से तुरंत इस्तीफा दे देना चाहिए, यह न सिर्फ समय की मांग है, बल्कि भारतीय रेल के सभी प्रमोटी अधिकारी भी अब अपने आत्म-सम्मान को बचाए रखने के लिए यही चाहते हैं. 

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