Saturday, March 17, 2012


तीव्रगामी रेल से ही कम हो सकती है भीड़ 

भारतीय रेल की हालत 'भेड़िया धसान' की जैसी हो रही है, बल्कि यह कहना शायद ज्यादा सही होगा की हो गई है. 'भेड़िया धसान' वह स्थिति है जब बहुत सारे भेड़िए किसी संकट की आशंका से एक ही मांद में ठुंस जाते हैं. भारतीय रेल के जनरल और स्लीपर कोचों की हालत कुछ ऐसी ही हो रही है. और अब तो यह हालत थ्री एसी कोचों की भी होने लगी है, जबकि सुबह-शाम के पीक आवर में मुंबई की लोकल ट्रेनों में भीड़ की हालत तो 'भेड़िया धसान' से भी ज्यादा बदतर हो रही है. समय पर टिकट का न मिलना, टिकट खिड़कियों पर हर वक़्त लम्बी-लम्बी कतारों का लगा रहना यात्रियों के कीमती समय की बर्बादी तो है ही, बल्कि त्योहारों और छुट्टियों के सीजन में प्रत्येक ट्रेन की सामान्य क्षमता से कहीं ज्यादा प्रतीक्षा सूची (वेटिंग लिस्ट) का होना इस बात का प्रमाण है कि भारतीय रेल में भीड़ की स्थिति 'भेड़िया धसान' से भी ज्यादा बदतर हो गई है. आरक्षण न मिलना, और अब तो चार-चार महीने पहले से लोगों को अपने यात्रा प्रोग्राम बनाने के लिए मजबूर होना, मतलब यह कि भारतीय रेल में यात्रा करने की कल्पना करके ही रोंगटे खड़े कर देने वाली स्थिति आँखों के सामने लहराने लगती है. 

रेल यात्रियों को अपनी यात्रा के दौरान लगभग हर कदम पर कठिनाईयों से जूझना पड़ता है. टिकट खिड़की से लेकर गंतव्य तक पहुँचने की उनकी यह तकलीफ त्योहारों और गर्मी की छुट्टियों में कई-कई गुना बढ़ जाती है. भारी कठिनाई के इस पीक सीजन में बच्चों, बुजुर्गों और बीमार परिजनों को लेकर भारतीय रेल में यात्रा करना एवरेस्ट की दुर्गम चोटियों पर चढ़ने से कम जोखिम भरा काम नहीं होता. शहर हमेशा से मनुष्य के आकर्षण का केंद्र रहे हैं. लेकिन ये शहर आज विकास के परिचायक बन चुके हैं. मनुष्य की रोजी-रोटी कमाने और प्रगति के इंजन बन चुके हैं आज ये शहर..! शहरों की मात्र पांच प्रतिशत जमीन पर दुनिया का आधा उत्पादन हो रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले शहरों में लोगों की आय और वस्तुओं का अधिक उपभोग जहाँ 'पुल-फैक्टर' का काम कर रहा है, वहीं गावों की गरीबी और बेरोजगारी 'पुश-फैक्टर' की भूमिका निभा रही है. यह दोनों 'फैक्टर' मिलकर न सिर्फ गावों को वीरान कर रहे हैं, बल्कि शहरों में भीड़ भी बढ़ा रहे हैं. अगर शहरों को गावों से तीव्रगामी रेल नेटवर्क के जरिए जोड़ दिया जाए, तो शहरों में बढती इस भीड़ को काफी कम किया जा सकता है. इससे लोग गाँव को छोड़े बिना भी अपनी आय को बढ़ा सकते हैं. इसके साथ ही खाद्यान्नों, फलों - फूलों और सब्जियों की आवाजाही भी सुगम होगी और ज्यादा बढ़ेगी भी, जिसका प्रभाव समूची अर्थ-व्यवस्था पर पड़ेगा. 

शहरों के फैलाव ने उदारीकरण के नीति-निर्माताओं की चिंता बढ़ा दी है. हर शहर अपने आसपास की उपजाऊ भूमि को निगले जा रहा है. अब कुछ बड़े शहर अथवा महानगर आपस में मिलकर कई 'मेगा-रीजन' बना रहे हैं. भारत में दिल्ली के आसपास नोएडा, गाजियाबाद और गुडगाँव मिलकर 'एनसीआर' यानि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र बन गए हैं, मुंबई पूरे ठाणे और रायगड जिले को हड़प रही है. इसी तरह देश के कई अन्य शहर भी अपने आसपास के गावों और कस्बों को लील रहे हैं. जबकि जापान में ओसाका-क्योटो को और हांगकांग शेनजेन-ग्वांझाऊ को निगल गए हैं. ये मेगा-रीजन अथाह सम्पदा के चालक बनकर सामने आए हैं. यह जानना आश्चर्यजनक हो सकता है कि दुनिया के मात्र 25 बड़े शहरों के हिस्से में विश्व की आधी संपत्ति आती है. भारत और चीन की भी आधी सम्पदा इनके पांच बड़े महानगरों में ही सिमटी हुई है. लेकिन जिस गति से शहरों में भीड़ बढ़ रही है, उस गति से यहाँ जन-सुविधाओं में वृद्धि नहीं हो पा रही है. यही वजह है कि शहरों की पहचान 'समस्या स्थलों' के रूप में होने लगी है. 

स्थितियां कुछ ऐसी हैं कि एक तरफ महानगरों के दड़बेनुमा कमरों-खोलियों में भीड़ बढती जा रही है, तो दूसरी तरफ गावों-कस्बों के लाखों घरों में ताले बढ़ते जा रहे हैं. ऐसी स्थिति में यदि गावों और शहरों के बीच आवाजाही तीव्र और सुगम-आसान बना दी जाए, तो इससे न सिर्फ शहरों में भीड़ कम होगी, बल्कि देश का सर्व-समावेशी विकास होना भी संभव हो सकता है. विश्व बैंक ने अपने एक आकलन में कहा है कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में यातायात व्यवस्था जितनी सुगम और सुविधा-संपन्न होगी, अर्थव्यवस्था का उतना ही फायदा और विस्तार होगा. किसी देश की परिवहन व्यवस्था सस्ती और सुगम होने से न सिर्फ लोगों के बीच व्यापार में बढ़ोत्तरी होती है, बल्कि कारोबार की लागत में भी काफी कमी आती है. जापान की राजधानी टोकियो में प्रतिदिन करीब 80 लाख लोग बाहर से आकार अपना काम करते हैं, और चले जाते हैं, तो यह कमाल वहां की तीव्रगामी और वक़्त की पाबन्द रेल का ही है. कहने को तो लगभग इतने ही लोग रोज मुंबई में भी आते-जाते हैं, मगर जापान और मुंबई की रेल व्यवस्था में हवाई जहाज और बैल-गाड़ी का अंतर है. जबकि जापान दो बार परमाणु हमलों और कई बार कई प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होकर फिर उठ खड़ा हुआ है, मगर मुंबई ने वैसी कोई आपत्ति नहीं झेली है, फिर भी हम जापानी लोगों जैसे कर्मठ नहीं बन पाए. 

कोटा, बनारस और अमृतसर से रोज दिल्ली आकर जैसे घर से ही दफ्तर आने-जाने की कल्पना आज आज़ादी के 66 साल बाद भी नहीं की सकती है, वैसे ही भुसावल, सोलापुर या वड़ोदरा से रोज मुंबई आकर नौकरी करने कल्पना साकार नहीं हो पाई है. इसी प्रकार झाँसी, गोरखपुर, बस्ती, फ़ैजाबाद, जौनपुर, आजमगढ़, मिर्ज़ापुर, इलाहबाद, प्रतापगढ़, फतेहपुर और रायबरेली से रोज लखनऊ या इलाहबाद आकर स्थानीय तौर पर नौकरी करना आज भी लोगों की कल्पना से बाहर है. देश में ऐसे अन्य कई बड़े शहर और प्रदेशों की राजधानियां हैं, जहाँ तीव्रगामी रेल नेटवर्क होना आज की प्रथम आवश्यकता है. किसी तरह यदि यह संभव हो जाए, तो लाखों लोग दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई सहित अहमदाबाद, लखनऊ, बंगलौर, भोपाल, भुवनेश्वर, बिलासपुर आदि मंझोले शहरों में भी बसने का सपना छोड़कर आसान जिंदगी गुजार सकते हैं. लेकिन इसके लिए कम से कम चार सौ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से चलने वाली ट्रेनों की पटरियों का पूरा संजाल बिछाने की जरूरत पड़ेगी. भारतीय रेल में तीव्र गति का मतलब भले ही शताब्दी-राजधानी गाड़ियों की अधिकतम 130 किमी. प्रति घंटे की रफ़्तार से लगाया जाता हो, मगर दुनिया इस गति को आज बैलगाड़ी की गति मानती है, जो कि इसे न जाने कब का बहुत पीछे छोड़ चुकी है. इस सन्दर्भ में स्पेन ने सीमेंस-बोलरोई गाड़ी 2006 में 404 किमी. प्रति घंटे की गति से चलाई, तो चीन ने उसे पीछे छोड़ते हुए 416 किमी. प्रति घंटे की रफ़्तार वाली सीआरएच-3 ट्रेन चला दी, और जापान ने तो 518 किमी. प्रति घंटे की गति वाली बिना पहियों की मैगलेव रेल चलाकर इन सबसे बाजी ही मार ली है. 

यहाँ ध्यान देने वाली बात यह भी है कि धीमी गति के साथ ही अन्य कई प्रकार की बाधाएं भी भारतीय रेल की गति को सीमित कर रही हैं. रेल आधुनिकीकरण पर बुनियादी विकास के विशेषज्ञ और भारत में संचार क्रांति के जनक डा. सैम पित्रोदा और सुप्रसिद्ध परमाणु वैज्ञानिक डा. अनिल ककोड़कर की अध्यक्षता में रेल संरक्षा पर गठित की गई उच्चाधिकार प्राप्त समितियों ने हाल ही में प्रस्तुत की गई अपनी रिपोर्टों में भारतीय रेल की बदहाली की पुष्टि की है. इन रिपोर्टों के मुताबिक करीब 24 हजार मानव रहित लेवल क्रासिंगो और जगह - जगह टूटे - फूटे रेलवे ट्रैक से लेकर असुरक्षित डिब्बों तथा अपनी उम्र को कब का पार कर चुके 11500 रेल पुलों के कारण भारतीय रेल दुनिया की अन्य रेलों से बहुत पीछे छूट चुकी है. नई तकनीक के आभाव में पुराने ढंग के ट्रैक, कोच और वैगनो से किसी तरह भारतीय रेल का काम चल रहा है. यह न सिर्फ अत्यंत खतरनाक है, बल्कि यह बहुत अपर्याप्त भी है. देश की बढती यातायात अपेक्षाओं को पूरा किया जा सके, इसके लिए सम्पूर्ण ट्रैक से लेकर पूरे रोलिंग स्टाक तक और स्टेशनों से लेकर समस्त सिग्नल प्रणाली तक सब कुछ बदलने की जरूरत है. यह बदलाव तभी संभव हो पाएगा, जब पैसे की किल्लत दूर होगी. 

भारतीय रेल फ़िलहाल जिस तरह वोट बैंक का जरिया बनी हुई है, और जिस तरह इसे सत्ता की भागीदार क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों की चारागाह बना दिया गया है, उससे कोई बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं दिखाई दे रही है कि निकट भविष्य में इसका आमूल-चूल कायापलट हो पाएगा. पिछले दस वर्षों में थोक मूल्य सूचकांक तीन सौ प्रतिशत से भी ज्यादा बढ़ गया है, मगर इस बीच रेलवे के यात्री किराए जस के तस बने हुए हैं. ममता बनर्जी जैसे तुनकमिजाज और अवसरवादी राजनीतिज्ञों ने अपनी क्षेत्रीय और ब्लैकमेलिंग की राजनीति चमकाने के लिए भारतीय रेल का पूरा बंटाधार कर दिया है. इस पर अब भी तुर्रा यह है कि वह इसके किराए बढाए जाने का ही विरोध नहीं कर रही हैं, बल्कि उन्होंने अपनी ही पार्टी के रेलमंत्री को संसद में रेल बजट पेश करने के तुरंत बाद पद से हटा दिए जाने का फरमान प्रधानमंत्री को सुना दिया है. माल भाड़े से यात्री किरायों की भरपाई करने की गलत परम्परा भी भारतीय रेल की कंगाली का एक मजबूत कारण बनी है. माल वैगनो और यात्री कोचों के निर्माण के लिए नए कारखाने भी समय पर नहीं खड़े किए जा पा रहे हैं. यही वजह है कि जिस तेजी से यात्रियों की संख्या बढ़ रही है, उस तेजी से बोगियों का निर्माण - उत्पादन नहीं हो पा रहा है. रोलिंग स्टाक की कमी के साथ ही सीमित लाइन क्षमता और मालगाड़ियों की कछुआ चाल भी समय पर रेलवे से भेजे जाने वाले सामान को गंतव्य पर पहुंचाने में एक सबसे बड़ी बाधा है. रेलवे स्टेशनों के पास या नजदीक माल जमा करने और उसे चढ़ाने - उतारने की सुविधाओं वाले लाजिस्टिक पार्कों की कमी चौतरफा बनी हुई है. कंटेनरों से ढुलाई भी इस देश में बहुत ही मंहगी है. 

भारत के लाखों गावों - कस्बों को तीव्रगामी रेलगाड़ियों से जोड़ने और रेल यात्रा को सुलभ - सुगम और सुविधासंपन्न बनाने का लक्ष्य तभी हासिल हो पाएगा जब राष्ट्रीय स्तर पर इसकी कोई एक समग्र रेल नीति बनाई जाए. दुर्भाग्यवश, भारतीय रेल केंद्र में एक लम्बे अर्से से गठबंधन की राजनीति का शिकार बनकर रह गई है. इसके लिए केंद्र सरकार का कमजोर होना तथा उसमे क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा रहना एक बड़ा कारण है. क्षेत्रीय पार्टियों ने भारतीय रेल के असीमित संसाधनों का इस्तेमाल करके इसे अपनी राजनीति चमकाने का एक जरिया बना लिया है. केंद्र की सत्ता में भागीदार क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों से बनने वाले रेलमंत्री भारतीय रेल का दीर्घकालिक सुधार करने के बजाय अपनी पार्टी और अपने प्रदेश तथा यहाँ तक की अपने संसदीय क्षेत्र तक के हितों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं. ऐसी स्थिति में ग्रामीण बाजार से सीधे बड़े शहरों और महानगरों से भारतीय रेल के जुड़ने की राह बहुत मुश्किल है. 
प्रस्तुति : सुरेश त्रिपाठी 
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1 comment:

  1. This is not only in case of Indian Railways, it is happening everywhere. None is there to save our country. Everywhere there is corruption. we do not know when there is no tree how we will get mangos. Is it independence? Raja se praja tak sab ek jaise hain. kisi ko kisi kee parwah nahin hai. Mera desh mahan.

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